पिछले कुछ सालों में जिस तेजी से धरती गर्म हो रही है, उसे लेकर वैज्ञानिक लगातार आगाह करते रहे हैं। कारणों की भी मीमांसा हो रही है और बचने के उपाय भी सुझाए जा रहे हैं। इन सबके बीच जो नहीं हो रहा है वह है ठोस पहल। ऐसा लगता है कि विकास की अंधी दौड़ में ठहर कर सोचना भी जोखिम मोल लेना हो गया है। हो भी क्यों नहीं, जब कथित विकास का मंत्र पर्यावरण के विनाश पर ही टिका हो। पश्चिम ने विकास के जितने भी प्रतिमान हमें दिए हैं, वे सभी प्रकृति के दोहन पर ही तो आधारित हैं। अब पश्चिम ही हमें प्रकृति का दोहन बंद कर विकास के टिकाऊ मॉडल को अपनाने का ज्ञान दे रहा है। यह वही ज्ञान है जो प्राचीन काल से भारतीय जीवनशैली का हिस्सा रहा है। इसे स्वीकार करना होगा कि धरती पर कार्बन उत्सर्जन कम करने और यहां जीवन के अनुकूल परिस्थितियों को लंबे समय तक बनाए रखने के ईमानदार प्रयास अब तक शुरू ही नहीं हुए हैं। विडंबना यह है कि एक तरफ पश्चिम के कथित विकास की चकाचौंध हमें आकर्षित कर रही है तो दूसरी तरफ हम इसके दुष्प्रभावों से मुक्त भी रहना चाहते हैं।
वैज्ञानिक बता रहे हैं कि शहरों में ‘हीट आइलैंड’ बन रहे हैं, जिसके लिए मुख्य रूप से सीमेंट-तारकोल और कृत्रिम वातानुकूलित (एसीवाली) जीवनशैली जिम्मेदार है। कंक्रीट और तारकोल के जंगलों का विस्तार करने को जब तक हम अपनी जरूरत समझते रहेंगे तब तक हरे-भरे जंगलों को कटने से कोई नहीं रोक सकेगा। जब तक जीडीपी से विकास को मापा जाता रहेगा, तब तक बेहिसाब औद्योगीकरण पर ब्रेक लगाना कठिन ही बना रहेगा।