के.एस. तोमर, राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकारराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की परिवारों से अधिक संतान पैदा करने की अपील जनसंख्या संकट की धारणा से जुड़ी हुई है। यह एक ऐसे दृष्टिकोण को दर्शाती है, जो प्रतिक्रियावादी, महिला विरोधी और भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं से अलग है। इसने एक बहस को जन्म […]
के.एस. तोमर, राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की परिवारों से अधिक संतान पैदा करने की अपील जनसंख्या संकट की धारणा से जुड़ी हुई है। यह एक ऐसे दृष्टिकोण को दर्शाती है, जो प्रतिक्रियावादी, महिला विरोधी और भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं से अलग है। इसने एक बहस को जन्म दिया है, क्योंकि इसमें एक समुदाय विशेष में अधिक संतान पैदा करने की ओर इशारा करने की कोशिश की गई है। भारत की युवा पीढ़ी बेहतर जीवन स्तर की आकांक्षा करती है, न कि बड़े परिवारों की। जीवनयापन की बढ़ती लागत, करियर की आकांक्षाएं और वित्तीय सुरक्षा की आवश्यकता जैसे प्रमुख कारक परिवार नियोजन को प्रभावित करते हैं। अधिक बच्चे पैदा करने की अपील इन आकांक्षाओं से मेल नहीं खाती, जो समकालीन भारतीयों की वास्तविकताओं से पूरी तरह से अलग है। भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर घट नहीं रही, बल्कि वृद्धि की गति धीमी हो रही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस-5) के अनुसार कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 2.0 तक गिर गई है, जो प्रतिस्थापन स्तर 2.1 से नीचे है। यह गिरावट शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं और महिला सशक्तीकरण का परिणाम है। वैश्विक नीति निर्माता इन प्रवृत्तियों को विकास के संकेत के रूप में देखते हैं, संकट के रूप में नहीं।
अधिक संतान की बात 1960 और 1970 के दशक की चिंता से बिल्कुल विपरीत है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जनसंख्या वृद्धि के गंभीर खतरे के खिलाफ चेतावनी दी थी, जो देश को प्रगति के मार्ग पर ले जाने के सपने को अस्थिर कर सकता था। अधिक संतान पैदा करने की सोच में एक गहरी पितृसत्तात्मक धारा निहित है, जो महिलाओं को मुख्य रूप से संतान उत्पन्न करने वाली मशीनें मानती हैं। परिवारों से अधिक संतान पैदा करने की अपील महिलाओं पर अनावश्यक बोझ डालती है, जो उनकी आकांक्षाओं, स्वायत्तता और स्वास्थ्य को नजरअंदाज करती है। ऐसे देश में जहां मातृत्व मृत्यु दर एक चिंता का विषय है और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच असमान है, महिलाओं से अधिक संतान उत्पन्न करने की अपील मौजूदा कमजोरियों को और बढ़ाती है। महिलाओं को अक्सर असंतोषजनक स्वास्थ्य सुविधाओं का सामना करना पड़ता है और बढ़ती गर्भधारण से स्वास्थ्य जोखिमों में वृद्धि हो सकती है।
इसके अलावा, इस तरह की सोच लिंग समानता के लक्ष्यों से भी मेल नहीं खाती। भारत ने महिलाओं को शिक्षा और कार्यबल में भागीदारी के माध्यम से सशक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। बड़े परिवारों को बढ़ावा देना इस प्रगति को बाधित कर सकता है, जिससे महिलाओं को व्यक्तिगत और पेशेवर विकास पर प्रजनन को प्राथमिकता देने के लिए मजबूर किया जाएगा। भारत ऐसे आर्थिक और पर्यावरणीय संकटों का सामना कर रहा है, जो बड़े परिवारों की अपील को असंभव बना देते हैं। 1.4 अरब से अधिक जनसंख्या वाले भारत को गंभीर संसाधन सीमाओं का सामना करना पड़ता है। खाद्य सुरक्षा, जल संकट और बेरोजगारी जैसे मुद्दे जनसंख्या दबावों से और बढ़ते हैं। परिवारों में बच्चों की संख्या बढ़ाना इन समस्याओं को और बढ़ाएगा, जिससे सार्वजनिक सेवाओं और प्राकृतिक संसाधनों पर और अधिक दबाव पड़ेगा। भारत की युवा जनसंख्या, जिसे जनसंख्यात्मक लाभांश माना जाता है, उच्च बेरोजगारी दरों से जूझ रही है। भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 15-29 आयु वर्ग में बेरोजगारी दर 20त्न से अधिक है। यदि नौकरियों का सृजन किए बिना जनसंख्या बढ़ाई जाती है, तो यह लाभांश एक बोझ में बदल सकता है। भारत जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील देशों में से एक है। जनसंख्या वृद्धि से कार्बन फुटप्रिंट बढ़ता है, शहरी योजना जटिल हो जाती है और वनों की कटाई तेज होती है। वैश्विक नीति निर्माता टिकाऊ विकास की दिशा में काम कर रहे हैं, जिससे ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील समकालीन वैश्विक प्राथमिकताओं से मेल नहीं खाती।
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