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सूर्य ही महादेव

– पृथ्वी का अग्नि वसु, अन्तरिक्ष का अग्नि रुद्र तथा सूर्य का अग्नि आदित्य है। तीनों मिलकर वैश्वानर हैं।- ब्रह्मा और विष्णु प्राणों के यज्ञ से इन्द्र प्राणों का निर्माण होता है। इन तीनों प्राणों को देव कहते हैं। तीनों मिलकर महादेव ‘त्रिनेत्र’ कहलाते हैं। यही सूर्य हैं। यही जगत् का आत्मा है। यही ब्रह्माण्ड का हृदय है।

Mar 11, 2021 / 07:45 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी (प्रधान संपादक पत्रिका समूह)

गुलाब कोठारी (प्रधान संपादक पत्रिका समूह)

सूर्य सृष्टि का प्रथम सोलह कलाओं से युक्त पूर्ण आत्मा है। जगत् का आत्मा कहलाता है। सूर्य ही हमारा पिता भी है, शिव है, अद्र्धनारीश्वर है। सूर्य स्वयं पिण्ड रूप है, भीतर जलयुक्त है। जैसे ब्रह्माण्ड में या हमारे शरीर में तीन चौथाई जल है, सूर्य में भी है। सूर्य के केन्द्र में विष्णु का स्थान है-मध्यवर्ती नारायण:। तीनों प्राण हमारे सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं। आत्मा, कारण शरीर कहलाता है। सूक्ष्म और कारण शरीर मृत्यु के बाद भी साथ रहते हैं।

हमारे ब्रह्माण्ड के सात लोक हैं-भू, भुव:, स्व:, मह:, जन:, तप:, सत्यम्। भू पृथ्वी लोक या भू पिण्ड है। सत्यम् स्वयंभू या ब्रह्मा का लोक है। ब्रह्मा ही सर्वप्रथम विष्णु की नाभि से प्रकट होते हैं। यह ऋषि प्राणों का लोक कहलाता है। ब्रह्मा के तप से आप: समुद्र या जन:लोक (परमेष्ठी) बनता है। यहां भृगु-अंगिरा रूप सोम-अग्नि पैदा होते हैं। यह पितर प्राणों का लोक है। इसके अधिष्ठाता विष्णु प्राण (सोम) हैं। ब्रह्मा और विष्णु प्राणों के यज्ञ से इन्द्र प्राणों का निर्माण होता है। इन तीनों प्राणों को देव कहते हैं। तीनों मिलकर महादेव ‘त्रिनेत्र’ कहलाते हैं। यही सूर्य हैं। यही जगत् का आत्मा है। यही ब्रह्माण्ड का हृदय है। सृष्टि के जड़-चेतन सभी का हृदय (केन्द्र/नाभि) यही तीनों अग्नि प्राण-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र ही हैं। थोड़ी इसकी वैज्ञानिकता भी समझ लेनी चाहिए।

ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र तीनों अक्षर (सूक्ष्म) प्राण हैं। सूर्य केन्द्र ब्रह्मा, इन्द्र रूप प्रकाश तथा रश्मियों से लौटता है (जल) वह विष्णु प्राण है। सूर्य पर वायुमण्डल का सोम गिरकर इसको प्रज्वलित रखता है। प्रकाश पैदा करता है। प्राण भाग अन्य प्राण (देवता) पैदा होते हैं। पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य का प्रकाश (इन्द्र) ही 33 देवताओं का स्थान है। अंधेरे में (जल भाग) में 99 असुर प्राण तथा इनका राजा वरुण रहता है। पृथ्वी की अग्नि घन (वसु), अन्तरिक्ष की रुद्र तथा सूर्याग्नि को आदित्य कहते हैं। इनका अनुपात क्रमश: आठ वसु, ग्यारह रुद्र तथा बारह आदित्य रहता है। सूर्य पर गिरने वाला सोम ऊपर के आधे भाग पर ही गिरता है। यही मत्र्य भाग ही मृत्यु लोक का संचालक है। ऊपर अमृत लोक में कोई पिण्ड नहीं होता। सभी पंच महाभूत भी वायु रूप (ऋत) रहते हैं। सोम के भी तीन रूप हैं-अप्-वायु-सोम (घन-तरल-विरल)। अप् (पानी) नीचे इन्द्र के योग से बरस जाता है। पृथ्वी की अग्नि को शान्त करता है। अन्न और जीव पैदा करता है। अन्न से प्राणियों का पोषण होता है। आगे शरीर निर्माण के लिए शुक्र बनता है। अर्थात् स्थूल सोम के जल रूप से स्थूल शरीर का निर्माण होता है।

प्राणों से (वायु) देव असुर प्राण उत्पन्न होते हैं। ब्रह्माण्ड में ‘हृदय’ रूप में प्रत्येक जड़-चेतन का केन्द्र बनता है। केन्द्र के बिना आकार नहीं बनता। केन्द्र ही ‘सत्य’ सृष्टि कहलाता है। सूर्य से हमको ज्योति (आत्मा), आयु, गौ (वाक्) प्राप्त होते हैं। सूर्य की रश्मियों में जल भरा होता है। नीचे का जल भी पुन: ऊपर लौटता है। प्रतिदिन इसी प्रकार हमारी आयु का भी एक-एक दिन वहीं लौट जाता है (संहार)। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी (मिट्टी) बनती है। मिट्टी ही समय के साथ लोहा-सोना बनती है। हमारा शरीर भी जल से बनता है, मिट्टी है। विष्णु जल है, लक्ष्मी मिट्टी (अर्थ) का निर्माण करती है। ब्रह्म ही माया बनता है। माया निर्माण करती है। सूर्य का ऊपर का भाग ब्रह्म है, नीचे का आधा माया। यही सर्वत्र अद्र्धनारीश्वर का स्वरूप है। ब्रह्म की इच्छा के अनुरूप (सत्व-रज-तम) तीन प्रकार की सृष्टि होती है।

तीनों देव मिलकर महादेव कहलाते हैं। सम्पूर्ण सृष्टि का हृदय बनते हैं। हृदय क्या है? वेद में शब्द के प्रत्येक अक्षर का अपना अर्थ होता है। अत: शब्द का अर्थ शब्द में ही समाहित रहता है। उदाहरण के लिए-एक शब्द है-‘हृदयम्’। इसमें तीन अक्षर हैं-हृ-द-यम्। यहां तीनों अक्षरों के अर्थों को मिलाकर हृदय शब्द का अर्थ प्रकट होता है। तीन अक्षर हैं, यद्यपि इनके वर्ग भिन्न हैं। किन्तु ‘स्वरोऽक्षरम्। सहाद्यै: व्यञ्जनै:’ के सिद्धान्त से अक्षरात्मक स्वर तीन ही हैं। ‘हृञ् हरणे’ धातु से लिया प्रथम अक्षर। ‘दो अवखण्डने’ धातु से लिया गया-द अक्षर। ‘यम्’ नामक तीसरा अक्षर बना दोनों का नियामक। तीनों का अर्थ हुआ-आहरण-खण्डन-नियमन। आदान या संग्रह भाव (हृ), विसर्जन करने या फैंकने वाली शक्ति है-द, आदान-विसर्ग क्रिया का नियामक है यम्। यह हुआ हृदय का कार्य। लेना और देना।

शरीर में प्राण ‘द’ है, अपान ‘हृ’ है तथा व्यान-यम् है। यही हृदय है। लेना ‘हृ’ और देना ‘द’। लेना आगति (आना), देना गति (जाना)। केन्द्र से बाहर जाना गति, बाहर से केन्द्र की ओर आना आगति। इन दोनों क्रियाओं के लिए किसी स्थिर धरातल का होना आवश्यक है। यही नियमन तत्त्व है। इसे स्थिति कहते हैं। इन तीनों को वेद की भाषा में ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र कहा जाता है। ब्रह्मा प्रतिष्ठा (स्थिति) तत्त्व है। बल के कारण गति ही इन्द्र है। भरण-पोषण तत्त्व विष्णु है। पुराणों में इन्द्र को महेश कहा है। अत: ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों मिलकर हमारा हृदय बनते हैं।

हृदय के भीतर परात्पर का स्थान है। परात्पर (ब्रह्म) ही अव्यय-अक्षर-क्षर पुरुष रूप में आत्मा बनता है। यह आत्मा ही स्थूल शरीर में जाकर कर्म करता है। नेत्र शब्द का अर्थ है-जिस स्थान को अधिकार किया हुआ है, उसके संचालन पर जो नियमित दृष्टि रखता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म रूप ‘नेत्र’ है। भू-भुव:-स्व: नामक त्रिलोकी के महेश्वर होने से भी त्रिनेत्र कहलाते हैं। द्युलोक में विज्ञान रूप सूर्य नेत्र, प्रज्ञान रूप आत्मा में चन्द्र रूप महेश्वर तथा पृथ्वी के भूतात्मा में अग्नि नेत्र महेश्वर है। सूर्य महेश्वर के अंशों से ही पृथ्वी के जीव उत्पन्न होते हैं। यही शरीरों में वैश्वानर अग्नि का कारण है। सूर्य ही व्योमकेश है। सम्पूर्ण आकाश ही सिर है। इसमें जो जल है, उसी कारण इसे गंगाधर कहते हैं। सिर के पास ही चन्द्रमा है, बृह्मणस्पति है, अत: इनको चन्द्रशेखर कहा जाता है। पार्थिव चन्द्रमा के कारण चन्द्रमौलि भी कहते हैं। पृथ्वी का अग्नि वसु, अन्तरिक्ष का अग्नि रुद्र तथा सूर्य का अग्नि आदित्य है। तीनों मिलकर वैश्वानर हैं। रुद्र का रूप घोर है। इस अग्नि के विघ्रकारी स्वरूप को नष्ट करके शान्त करने से इन्हें शिव, शंकर, शंभु कहा जाता है। रौद्र रूप को शान्त करने के लिए (ग्रह योग से) अभिषेक करके सींचा जाता है। तब इनको साम्ब सदा शिव कहते हैं। सोम रूप शान्त करने वाली इनकी शक्ति का नाम ही उमा है। उमा सहितशिव:।
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