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patrika opinion सुनक की दावेदारी और दलों में लोकतंत्र

बोरिस जॉनसन का इस्तीफा देना और पार्टी के भीतर नए प्रधानमंत्री के चयन की लंबी प्रक्रिया लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था जगाने वाली है। हम देख सकते हैं कि नाम से कंजर्वेटिव होने के बावजूद पार्टी किस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों से संचालित है।

Jul 22, 2022 / 07:06 pm

Patrika Desk

patrika opinion सुनक की दावेदारी और दलों में लोकतंत्र

ब्रिटेन इन दिनों नया प्रधानमंत्री चुने जाने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। इस प्रक्रिया में भारत की रुचि लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि भारतीय मूल के ब्रिटिश सांसद ऋषि सुनक कंजर्वेटिव पार्टी के नए नेता और अगले प्रधानमंत्री चुने जाने के अंतिम पायदान पर आ गए हैं। यदि वह इसे पार कर लेते हैं तो ब्रिटेन में भारतीय मूल के पहले प्रधानमंत्री हो जाएंगे।
भारतीयों के लिए वह पल परोक्ष रूप से गौरवशाली होगा क्योंकि हमारे मस्तिष्क के ‘रेफरेंस फ्रेम’ में वे तीन सौ साल मौजूद हैं जब हमारा देश ब्रिटेन का गुलाम था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे विंसटन चर्चिल की नीतियों को तो हम आज भी अच्छे-बुरे संदर्भों में याद करते रहते हैं। ब्रिटेन रंगभेद (नस्ल के आधार पर बर्ताव) करने वाला प्रमुख देश रहा है। श्वेत रंग-रूप को बेहतर समझने वाले अब भी मौजूद हैं। पर जिस तरह पार्टी के भीतर चल रही चुनावी प्रक्रिया में सुनक ने पिछले पांच चरणों में बढ़त हासिल की है, वह इस बात का सबूत माना जा सकता है कि ब्रिटेन ‘श्वेत वर्चस्व’ (वाइट सुप्रीमेसी) की मानसिकता से बाहर निकल आया है। यह दर्शाता है कि विकास का मतलब मानसिक संकीर्णताओं को छोड़ आगे बढऩा ही है। दूसरी तरफ भारत में हम वर्ण/वर्गभेद की पुरानी संकीर्णता में आज भी जकड़े हुए हैं। क्षेत्रीयतावाद का इस्तेमाल करना राजनीतिक चतुराई हो गई है।
बोरिस जॉनसन का इस्तीफा देना और पार्टी के भीतर नए प्रधानमंत्री के चयन की लंबी प्रक्रिया लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था जगाने वाली है। हम देख सकते हैं कि नाम से कंजर्वेटिव होने के बावजूद पार्टी किस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों से संचालित है। सत्ताधारी दल के भीतर सरकार के प्रति असंतोष/असहमति को फलने-फूलने का मौका देना सीखने लायक है।
भारतीय दलों को देखें तो ऐसे विरले उदाहरण ही मिलेंगे। अब तो असहमति का अर्थ शत्रुता समझने का नया चलन भी दिखता है। महाराष्ट्र का ताजा उदाहरण सामने है जब उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने असहमत समूह को ‘गद्दार’ बता बाहर कर दिया। सरकार चली गई पर ‘लोकतांत्रिक मूल्योंÓ के विरुद्ध ऐंठन कम नहीं हुई। अब विवाद का निपटारा सुप्रीम कोर्ट में होगा। शिवसेना ही नहीं, कोई भी पार्टी अब अंदरूनी लोकतंत्र से संचालित होती प्रतीत नहीं हो रही। खानापूर्ति जरूर की जाती है ताकि संवैधानिक मर्यादाओं के पालन का दिखावा होता रहे। ब्रिटेन में नए नेता के चयन के लिए आठ से ज्यादा उम्मीदवारों का सामने आना और आखिर में बचे दो पर पार्टी कार्यकर्ताओं को मत रखने का मौका देना लोकतंत्र के प्रति आस्था का अनुकरणीय उदाहरण पेश कर रहा है।

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