पिछले वर्ष ऐसा ही घटनाक्रम राजस्थान में भी हुआ, लेकिन अनुभवी राजनेता अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री होते वह प्रयास नाकाम रहा। तब भी कांग्रेस को जैसलमेर के साथ, जयपुर के इसी होटल में अपने विधायकों की बाड़ाबंदी करनी पड़ी थी। गुजरात में राज्यसभा चुनाव और महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार पर आए अस्तित्व के संकट के दौरान भी विधायकों को यहीं ठहराया गया था। इसका सीधा कारण शायद राजस्थान में कांग्रेस सरकार होने से यहां उनकी हिफाजत हो पाना है। बाड़ाबंदी अब विधायकों या विधायक उम्मीदवारों या फिर किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं रह गई। राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश जैसे कई राज्यों में भाजपा और कांग्रेस ही नहीं, खुद कई दावेदार भी स्थानीय निकाय-पंचायत चुनाव में अपने स्तर पर उम्मीदवारों की ऐसी बाड़ाबंदी कर चुके हैं। जनप्रतिनिधियों की बोली लगाने वाला ज्यादा दोषी है, तो पाक-साफ वह भी नहीं, जो अपनी दलीय तपस्या को धन, पद या किसी भय से भंग करने को तैयार हो जाता है। लोकतंत्र में इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या होगा? जनता जिसे रक्षक के तौर पर चुनती है, वह खरीददारों से अपनी ही रक्षा नहीं कर पाता, तब दोष किसे दें? इन्हें चुनने वाले मतदाताओं को, उन्हें टिकट देने और बोली लगाने वाले राजनीतिक दलों को, चुनाव आयोग को या फिर अधूरे कानून बनाने वाली सरकारों को?
दोषी सभी हैं, लेकिन उसका दोष सबसे ज्यादा है, जो सत्ता की खातिर लोकतांत्रिक मान-मर्यादाओं को तिलांजलि देने को तैयार हो जाता है। दलबदल को हिन्दुस्तान का मतदाता लगभग 70 वर्षों से देख रहा है, उसे रोकने को कई बार कानून भी बनाए गए, लेकिन ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ की तर्ज पर लोकतंत्र का चीरहरण करने वालों ने उससे बचने के भी रास्ते निकाल लिए। अब इस्तीफा दिला, सीट खाली करा, ‘खेला’ हो जाता है। यह ‘खेला’ बंद होने पर ही बाड़ेबंदियां बंद होंगी, नहीं तो अपने लोकतंत्र के साथ, अपन किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।