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संसार के जन्म व प्रलय के कारण भी हैं श्रीकृष्ण

शास्त्री कोसलेंद्रदास अध्यक्ष, दर्शन विभाग राजस्थान संस्कृत विविश्रीकृष्ण की लोकोत्तर गाथाओं का पुरातन संग्रह महाभारत है, जो महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रणीत है। वे इसमें धर्मरूपी वृक्ष के मूल कहे गए हैं। इसके बाद भागवत महापुराण में वे संसार के जन्म, स्थिति और प्रलय के कारण बताए गए हैं। सनातन धर्म में सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ गीता […]

जयपुरAug 26, 2024 / 09:29 pm

Gyan Chand Patni

जन्माष्टमी उपाय

शास्त्री कोसलेंद्रदास अध्यक्ष, दर्शन विभाग राजस्थान संस्कृत विवि
श्रीकृष्ण की लोकोत्तर गाथाओं का पुरातन संग्रह महाभारत है, जो महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रणीत है। वे इसमें धर्मरूपी वृक्ष के मूल कहे गए हैं। इसके बाद भागवत महापुराण में वे संसार के जन्म, स्थिति और प्रलय के कारण बताए गए हैं। सनातन धर्म में सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ गीता उनके उपदेशों का ऐसा अनुपम संग्रह है, जिसके अठारह अध्यायों में कर्म, ज्ञान और भक्ति का सर्वोत्कृष्ट विवेचन है। गीता की बातें निराली हैं। इसमें अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि किससे प्रेरित होकर व्यक्ति न चाहते हुए भी अनायास पाप-कृत्य कर जाता है? दिया हुआ उत्तर है – रजोगुण से उत्पन्न विषयेच्छा एवं क्रोध मनुष्य के शत्रु हैं। नरक में प्रवेश के तीन द्वार काम, क्रोध एवं लोभ हैं, इनसे व्यक्ति का नाश हो जाता है। अत: मनुष्य इन तीनों को छोड़ दे।
सगुण भक्ति का यह अद्भुत चमत्कार है कि सच्चिदानंद परमात्मा ही गोकुल में माता यशोदा की गोद में पुत्ररूप में प्रकट हो जाते हैं। वे द्वापर में ही नहीं बल्कि आज भी प्रतिवर्ष भाद्रपद की कृष्णाष्टमी पर जन्म लेकर भक्तों को अपरिमित आनंद का प्रसाद बांटते हैं। इससे ही श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी का उत्सव प्रचलित है, जो भारत में सर्वत्र मनाया जाता है और सभी व्रतों एवं उत्सवों में श्रेष्ठ कहा गया है। पद्म, मत्स्य और अग्निपुराण में जन्माष्टमी का विशिष्ट उल्लेख है। जगद्गुरु रामानंदाचार्य ने ‘वैष्णवमताब्जभास्कर’ में कृष्ण जन्माष्टमी का सुंदर वर्णन करते हुए इस दिन उपवास रखने व उत्सव मनाने का संकेत किया है। स्मृतिमुक्ताफल ने कहा है कि राजा नल, धर्मराज युधिष्ठिर, माता सीता एवं भगवान श्रीकृष्ण पुण्यश्लोक हैं। पुण्यश्लोक यानी जिनके यश का गान करना पवित्र कार्य है। ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से श्रीकृष्ण की भगवान विष्णु के अवतार के रूप में पूजा होती रही है। उनके लीला स्थल तीर्थ कहे गए हैं। उनकी जन्म नगरी मथुरा उन सात पुरियों में एक है, जिन्हें मोक्ष देने वाली कहा गया है।
वराह एवं नारदीय पुराण ने मथुरा के पास 12 वनों की चर्चा की है। ये हैं – मधु, ताल, कुमुद, काम्य, बहुल, भद्र, खदिर, महावन, लोहजंघ, बिल्व, भांडीर एवं वृंदावन। पुराणों के अनुसार वृंदावन यमुना किनारे मथुरा के उत्तर-पश्चिम में था और विस्तार में पांच योजन था। यही श्रीकृष्ण की लीला-भूमि थी। पद्मपुराण ने इसे पृथिवी पर वैकुंठ माना है। मत्स्यपुराण ने भगवती राधा को वृंदावन में देवी दाक्षायणी माना है। कालिदास ने ‘रघुवंश’ में कहा है कि वृंदावन कुबेर की वाटिका चित्ररथ से सुंदरता में कम नहीं है। इसके उपरांत गोवर्धन पर्वत की महत्ता है, जिसे कृष्ण ने अपनी कनिष्ठ अंगुली पर इंद्र द्वारा भेजी गई वर्षा से गोप-गोपियां एवं गायों को बचाने के लिए उठाया था। वराहपुराण में आया है कि गोवर्धन मथुरा से पश्चिम लगभग दो योजन है। ‘अमरकोष’ ने श्रीकृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य और चक्र का नाम सुदर्शन बताया है। उनकी गदा का नाम कौमोदकी, खड्ग का नंदक, धनुष का शाङ् र्गऔर हृदय पर धारण की गई मणि का नाम कौस्तुभ है। उनके सारथी दारुक, मंत्री उद्धव और छोटे भाई गद हैं।
छांदोग्योपनिषद में है कि देवकीपुत्र कृष्ण ने घोर आंगिरस से शिक्षाएं ग्रहण की थीं। महाभारत में श्रीकृष्ण यादव राजकुमार हैं और पांडवों के सबसे गहरे मित्र हैं। वे बड़े भारी योद्धा, राजनीतिज्ञ एवं दार्शनिक हैं और साक्षात परमात्मा विष्णु हैं। अयोनिजा द्रौपदी के स्वयंवर में वे पांडवों को पहली बार देखते हैं और अर्जुन द्वारा लक्ष्यभेद किए जाने पर अत्यंत आनंदित होते हैं। राजा द्रुपद की नगरी में किसी कुम्हार के घर छद्म रूप से ब्राह्मण वेश में रहने वाले पांडवों के पास जाकर वे धर्मराज युधिष्ठिर एवं उनकी माता कुंती के चरण छूते हैं। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर एवं भीष्म ने उनका प्रशंसा-गान किया है। यह जरूर है कि हरिवंश, विष्णु, वायु, भागवत एवं ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में श्रीकृष्ण की जिन लीलाओं का वर्णन है, वे महाभारत में नहीं पाई जातीं। महाभारत के अनुसार वासुदेव श्रीकृष्ण की 16 सहस्र रानियां थीं। महाभारत में वह करुण कथा भी है, जिसमें आया है कि वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपनी बहन सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु के वीरगति को प्राप्त होने के उपरांत उसका श्राद्ध किया और ब्राह्मणों को दान दिया।
ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में भारत आया मेगस्थनीज मथुरा को जानता था और वह हरेक्लीज (हरि-कृष्ण) से परिचित था। मथुरा के निवासी के लिए माथुर शब्द जैमिनि के पूर्वमीमांसा दर्शन में आया है। ‘अष्टाध्यायी’ से प्रकट होता है कि उनके काल में लोग वासुदेवक एवं आर्जुनक थे, जिसका अर्थ है वासुदेव कृष्ण एवं अर्जुन के भक्त। पतंजलि के महाभाष्य में मथुरा शब्द कई बार आया है। कई स्थानों पर वासुदेव द्वारा कंस के नाश का उल्लेख नाटकीय संकेतों, चित्रों एवं गाथाओं के रूप में आया है। महाभारत में आया है कि मथुरा अतिसुंदर गायों के लिए प्रसिद्ध थी।

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