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नीति नवाचार : शिक्षा में धर्म के आधार पर बच्चों में न हो भेदभाव

– अनुच्छेद-30 अल्पसंख्यक समुदायों को शिक्षण संस्थान खोलने का अधिकार देता है- दुनियाभर के धर्मनिरपेक्ष प्रगतिवादी विचारक एवं बाल अधिकार कार्यकर्ता इस विचार के हिमायती हैं कि बच्चों के अधिकार सर्वोपरि हैं। इसलिए यह उचित समय है कि अब नीतियों को नई दिशा दी जाए।

Sep 30, 2021 / 08:11 am

Patrika Desk

नीति नवाचार : शिक्षा में धर्म के आधार पर बच्चों में न हो भेदभाव

नीति नवाचार : शिक्षा में धर्म के आधार पर बच्चों में न हो भेदभाव

प्रियंक कानूनगो, (अध्यक्ष, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग)

भारतीय संविधान में शिक्षा के अधिकार को सर्वोपरि रखते हुए इसे अनुच्छेद 21 में शामिल कर इसे जीवन के अधिकार के भीतर समाहित किया गया है। भारतीय संविधान 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार देता है। इसलिए सरकार ने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का कानून भी बनाया है। बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सार्वभौमिक रूप दिया गया। बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन, शौचालय, खेल, पुस्तकालय, पुस्तकें, वर्दी इत्यादि का भी प्रावधान है। मंशा यह रही है कि जब शिक्षा के अधिकार कानून की सभी धाराओं का लाभ बच्चों को मिलेगा, तभी असल में यह सुनिश्चित होगा कि बच्चों को जीवन का अधिकार मिला हुआ है। अब अगर बात करें अल्पसंख्यक समुदाय की, तो संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में उनकी शिक्षा और संरक्षण का अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी मर्जी के शिक्षण संस्थान खोलने का अधिकार देता है, ताकि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी संस्कृति को संरक्षित कर सके।

हालांकि संविधान सभी धर्मों को अपने अनुसार अपने धर्म में आस्था और संरक्षण का अधिकार देता है, किंतु शिक्षा का अधिकार ऐसा अधिकार है, जो देश के हर बच्चे के जीवन के अधिकार के रूप में लाया गया था। इसी के चलते शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 में ऐसे प्रावधानों को जोड़ा गया, जो किसी भी रूप में देश के बच्चे की शिक्षा के बीच भेद न करे और उनको शिक्षा का अधिकार देकर अंतत: जीवन जीने के अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके। किंतु कालांतर में शिक्षा के अधिकार अधिनियम में संशोधन कर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक बच्चों के बीच भेद की एक ऐसी लकीर खींची गई, जिससे निश्चित रूप से बच्चों के जीवन का अधिकार अपनी मूल भावना से भटक गया। जैसा कि देखा गया जीवन जीने के अधिकार पर कई बार अन्य अधिकारों को तवज्जो दी गई इसी का परिणाम हमें शिक्षा का अधिकार अधिनियम में संशोधन के रूप में देखने को मिला। पिछले दिनों ऐसी ही मान्यता को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कोविड के दौरान कावड़ यात्रा पर रोक लगाते हुए अपने फैसले में कहा था कि धार्मिक भावनाएं नागरिकों के जीवन के अधिकार के अधीन ही होंगी। ऐसे में यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा, जो कि जीवन जीने के अधिकार का भाग है, उस पर अल्पसंख्यक समुदाय का शैक्षणिक संस्थान खोलने का अधिकार हावी नहीं हो सकता।

देश भर में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के बाद अपने अनुभवों के आधार पर आयोग की ओर से अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों की शिक्षा के संबंध में भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 (क) के संदर्भ में अनुच्छेद 15 (5) के अंतर्गत छूट के प्रभाव का अध्ययन कर रिपोर्ट तैयार की गई। इस अध्ययन के जो परिणाम आए हैं, वे ऐसे हैं, जिनके बारे में कभी गंभीर चर्चा ही नहीं हुई है।

अनुच्छेद 21 (क) अबोध बच्चों के व्यक्तिगत अधिकार से जुड़ा है और अनुच्छेद 30 समुदाय के सार्वजनिक अधिकार से। नीति निर्माताओं ने बच्चों को अधिकार संपन्न बनाकर एक सशक्त भारत के निर्माण की नींव रखी, लेकिन अनुच्छेद 30 को इस पर प्राथमिकता दी जाती है, तो यह बच्चों को उनके जीवन जीने की स्वतंत्रता से वंचित करने का एक घोर अपराध है। दुनियाभर के धर्मनिरपेक्ष विचारक एवं बाल अधिकार कार्यकर्ता इस विचार के हिमायती हैं कि बच्चों के अधिकार सर्वोपरि हैं। इसलिए यह उचित समय है कि देश के बच्चों के जीवन के अधिकार को प्राथमिकता देते हुए नीतियों को नई दिशा दी जाए।

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