आज कार्तिक पूर्णिमा है और पुष्कर मेले का आखिरी दिन भी। मैं पुष्कर मेले में अनगिनत बार गई हूं और जब से कैमरा हाथ में आया तब से यहां की तस्वीरें खींची हैं पर पिछले कुछ सालों में ये लगा कि खुद पुष्कर की तस्वीर बहुत तेजी से बदलने लगी है। जिस पुष्कर को मैंने अपनी पुस्तक में ‘रंगों का मेला’ कहा था, उसके वो चटक रंग हल्के पडऩे लगे थे। अध्यात्म के मेले से पशु मेले और फिर पर्यटकों के मेले तक के सफर को जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि अब सजीव धरोहर को संजोने के लिए हर ओर मुहिम छिड़ी है जिसके चलते हाल ही में गुजरात के गरबा और बंगाल की दुर्गा पूजा को विश्व विरासत सूची में दर्ज करने के लिए कदम उठाए गए।
पुष्कर के पौराणिक महत्त्व को ज़्यादातर लोग जानते हैं। पद्मपुराण का ‘पुष्कर महात्म्य’, पुष्कर का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व बताता है। पुष्कर को अर्धकुंभ माना गया और कार्तिक पूर्णिमा पर यहां के सरोवर में स्नान करना भक्तों के लिए महत्त्वपूर्ण बन गया। वह सरोवर, जिसका निर्माण सृष्टि के रचनाकार स्वयं ब्रह्मा ने किया, जिनका पुष्कर में विश्वप्रसिद्ध मंदिर भी है। अपने पशुधन के साथ मीलों लम्बा सफर कर यहां पहुंचे भक्तों के पड़ाव और आपस में सामान की खरीद-फरोख्त ने धीरे-धीरे एक बड़े पशु मेले का रूप ले लिया। एक बात तय है कि १६वीं सदी तक यह एक बड़े मेले का रूप ले चुका था जहां दूर-दूर से खरीदार आते थे। इसी के चलते मुगल सम्राट जहांगीर ने अपनी पुस्तक ‘तुज्क-ए-जहांगीरी’ में पुष्कर के इस मेले को उत्तर पश्चिमी इलाके का सबसे बड़ा मेला बताया। यहां भारतीय पुरातत्व विभाग की सूची में शामिल जहांगीर की एक बारादरी भी है। जब विदेशी पर्यटकों का आना शुरू हुआ तो इस मेले के रंगों का आकर्षण दूर-दूर से लोगों को आकर्षित करने लगा। राजस्थान पर्यटन ने उनके ठहरने का इंतजाम किया पहले अजमेर में और फिर पुष्कर के मान महल में। कहना चाहूंगी कि नाम बदलने के इस दौर में उस ऐतिहासिक इमारत मान महल का नाम उसे लौटाया जाना चाहिए, जिसे सरोवर नाम दे दिया गया।
खैर, धीरे-धीरे टीलों पर तम्बू लगने लगे जिनमें एक जोधपुर के पूर्व महाराजा गज सिंह का भी था। कुल मिला कर पुष्कर का जादू पूरे भारतीय पर्यटन पर चल चुका था। पुष्कर मेले से पहले और बाद में कुछ दिनों तक दिल्ली से ले कर जयपुर तक के होटलों में जगह नहीं मिलती थी। पशु विभाग ने पशु मेला संभाल रखा था और कहना न होगा कि ऊंट विदेशियों के लिए विशेष आकर्षण थे। एक समय ऐसा भी आया जब अचानक पशु विभाग ने पशुओं का रवन्ना जल्दी काटने का निर्णय लिया। अब जिसका प्रचार किया जा रहा था वही नहीं दिखे तो हलचल मचना लाजिमी है। तब ज्यादा दिनों के लिए ऊंटों के मेले और धार्मिक मेले को जोड़ कर प्रचार करना तय हुआ। फिर तम्बू और पहले से लगने लगे। पर कभी-कभी सफलता लापरवाही का शिकार बना देती है। बदलती संस्कृति का वेशभूषा पर असर पड़ा। जीन्स और टोपी, धोती-साफे की जगह लेने लगे। लगा कि अब महिलाओं की पोशाकें ही पुष्कर के रंगों को बचा सकती हैं पर वे भी ओढ़नियां बदलने लगीं। फिर पुष्कर के आध्यात्मिक रंग ऐसे पर्यटकों को खींचने लगे, जिनसे अर्थशास्त्र पर तो कोई असर नहीं पड़ा लेकिन सांस्कृतिक माहौल पर गहरा और प्रतिकूल असर पड़ा।
आज पुष्कर मेले को किसी ‘इन्फ्लुएंसर’ की जरूरत नहीं है। जरूरत सिर्फ मेला तारीखों के प्रचार, मेले के स्वरूप और आकर्षण को बिखरने से बचाने और रंगों को सहेजने की है। अमरीका में एक बार कोलोनियल विलियम्सबर्ग गई थी जो कि सजीव संग्रहालय है जहां आप उस समय को जीते हैं। तुलना तो नहीं करूंगी, पर पुष्कर मेले को लेकर कुछ वैसी ही अपेक्षा है। यदि धार्मिक कथाओं से इस घाटी के पहाड़, सरोवर और टीलों की रक्षा हो सकती है तो यह भी याद दिला दूं कि ब्रह्मा ने घाटी के मुख की रक्षा के लिए शिव के वाहन नंदी को नियुक्त किया था तो कृष्ण ने उत्तरी भाग का दायित्व लिया था। स्वयं ब्रह्मा ने अपनी मुट्ठी से जो रेत फेंकी थी उससे टीले बने थे और उनके कमल से वे तीन सरोवर। ऐसी घाटी यदि विदेश में होती तो उसे उसके मूल रूप में लाने के लिए क्या कुछ नहीं किया जाता। हम पहले तो इस ओर ध्यान नहीं देते, फिर ‘ग्लोबल टेंडर’ करते हुए नजर आते हैं!