छान्दोग्योपनिषद् कहता है कि सृष्टि के आरंभ में एक असत् ही था और उससे ही सत् की उत्पत्ति हुई। सत् के संकल्प से तेज उत्पन्न हुआ। तेज के संकल्प से अप् (जल), जल से पृथ्वी रूपी अन्न की रचना हुई। आगे सृष्टि का स्वरूप भी तेज-जल-पृथ्वी पर टिका है। तीनों देवता शरीर एवं इन्द्रियों के संघात रूप पुरुषत्व को प्राप्त कर के तीन-तीन प्रकार से पृथक् हो जाते हैं।
जो अन्न भोजन रूप में ग्रहण किया जाता है, उसका स्थूलतम जो भाग है, वह मल में बदल जाता है। मध्यम अंश रक्त-मांसादि धातुओं में तथा अतिसूक्ष्म अंश मन के रूप में परिणत हो जाता है। जो जल ग्रहण किया जाता है- उसका स्थूल भाग मूत्र बनता है। मध्यम अंश रक्त तथा सूक्ष्म अंश प्राण बन जाता है। तेज भी तीन रूपों में परिवर्तित होता है। स्थूल भाग अस्थि, मध्य भाग मज्जा तथा सूक्ष्म भाग वाणी बन जाता है। दही के मथने के पश्चात् उसका सूक्ष्म भाग ऊपर उठते हुए घी (घृत) के रूप में बदल जाता है। इसी प्रकार अन्न का सूक्ष्म भाग ऊपर उठते हुए मन के रूप में परिणत हो जाता है।
ऋषि उद्दालक श्वेतकेतु से कहते हैं कि मनुष्य 16 कलाओं से युक्त है। यदि तुम 15 दिन केवल जल का ही सेवन करो तो शेष एक कला से वेद का अध्ययन-अनुशीलन नहीं कर सकते। जैसे ईंधन के जल जाने पर शेष अंश से गर्मी पैदा नहीं होती। जिस समय पुरुष भोजन करने की इच्छा करता है, उस समय खाये हुए अन्न को जल ही ले जाता है। जल को भोजन ले जाने के कारण- अशनाय कहते हैं। उस जल के द्वारा ही इस शरीर रूपी अंकुर को प्रकट हुआ समझो। तेज को अन्न रूप कर्म का मूल समझो। तेजरूपी कार्य का मूल सत् तत्त्व होता है। सत् ही एकमात्र प्रतिष्ठा एवं आश्रय है। मनुष्य प्यास में पानी पीता है, तब जल को तेज ही अंदर ले जाता है। तेज को जल ले जाने वाला कहा है। अत: शरीर को जलरूपी मूल से प्रकट हुआ समझो। अन्न को शरीर के प्रत्येक अवयव तक जल ही लेकर जाता है। जल का सम्पूर्ण संचार विद्युत करता हैं। इस तेज का मूल सत् में रहता है। सभी प्राणी सत् रूपी मूल वाले, सत् रूपी उद्गम वाले और सत् रूपी अन्न वाले हैं। अत: मृत्यु के पास पहुंचने वाले पुरुष की वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में लीन हो जाते हैं।
आप जिस आत्मा की उपासना करते हैं वह ‘सुतेजा’ नामक श्रेष्ठ तेज युक्त वैश्वानर आत्मा ही है। आप अन्न का भक्षण करते हैं, और पुत्र-पौत्रादि को देखते हैं। वे भी इसी वैश्वानर रूप आत्मा की उपासना करते हैं। वे अन्न का भक्षण और अपने इष्ट का दर्शन करते हुए ब्रह्म तेज से युक्त होते हैं। यह आत्मा का चक्षु ही है। आदित्य ही वैश्वानर रूप आत्मा है। वायुदेव भी मूल में अलग-अलग मार्गों से आने वाला वैश्वानर ही है। इसी से आपको अन्न-वस्त्रादि उपहार मिलते हैं। यह आत्मा का प्राण ही है। आकाश भी बहुसंज्ञक वैश्वानर आत्मा ही है। इसी से आप पुत्र-पौत्रादि प्रजा तथा स्वर्णादि धन से पूर्ण हैं। यह आत्मा का उदर भाग है।
जल तत्त्व भी रयिवान (धनवान) वैश्वानर आत्मा है। इसी कारण आप रयिमान-पुष्टिमान हैं। शरीर में यह आपका मूत्राशय है। पृथ्वी तत्त्व भी प्रतिष्ठा रूप वैश्वानर आत्मा है। इसी से प्रजा एवं पशुओं की प्राप्ति होती है। यह आत्मा के चरण ही हैं। वैश्वानर का हृदय ही गार्हपत्य अग्नि है। मन दक्षिणाग्नि है, मुंह आहवानीय अग्नि है। इसी में अन्न का हवन होता है।
जो अन्न पककर भोजन के लिए आए, उससे यज्ञ करना चाहिए। प्रथम आहुति- ‘प्राणाय स्वाहा’ से प्राण तृप्त होता है। प्राण तृप्त होते ही चक्षु, चक्षु से सूर्य, सूर्य से द्युलोक, द्युलोक से द्युलोक की प्रतिष्ठा (आधार) तृप्त होते हैं। उनके तृप्त होने पर भोजनकर्ता, प्रजा, पशु, अन्नादि के साथ-साथ शरीर की कान्ति तथा ब्रह्म तेज (ज्ञान का तेज) द्वारा तृप्त होते हैं।
जो अन्न पककर भोजन के लिए आए, उससे यज्ञ करना चाहिए। प्रथम आहुति- ‘प्राणाय स्वाहा’ से प्राण तृप्त होता है। प्राण तृप्त होते ही चक्षु, चक्षु से सूर्य, सूर्य से द्युलोक, द्युलोक से द्युलोक की प्रतिष्ठा (आधार) तृप्त होते हैं। उनके तृप्त होने पर भोजनकर्ता, प्रजा, पशु, अन्नादि के साथ-साथ शरीर की कान्ति तथा ब्रह्म तेज (ज्ञान का तेज) द्वारा तृप्त होते हैं।
दूसरी आहुति- ‘व्यानाय स्वाहा’ से व्यान की तृप्ति होती है। व्यान से कर्णेन्द्रिय, श्रोत्र से चन्द्रमा, चन्द्रमा से दिशाएं, चन्द्रमा तथा दिशाओं का आधार तृप्त होते हैं। इससे भोक्ता तथा उसकी प्रजा तृप्त होती है। ब्रह्म तेज से तृप्ति प्राप्त होती है।
तीसरी आहुति ‘अपानाय स्वाहा’ से अपान तृप्त होता है। वागिन्द्रिय तृप्त होती है। वाणी से अग्नि, अग्नि से पृथ्वी, आगे अग्नि और पृथ्वी का आधार तृप्त होता है। इससे प्रजा, पशु, अन्न, तेज तथा ब्रह्म तेज से तृप्ति प्राप्त होती है।
चौथी आहुति- ‘समानाय स्वाहा’ से समान की तृप्ति होती है। समान से मन, मन से पर्जन्य, पर्जन्य से विद्युत की तृप्ति होती है। उसके पश्चात् प्रजा, पशु, अन्न के साथ तेज तथा ब्रह्म तेज से भोक्ता भी तृप्त होता है।
पांचवी आहुति- ‘उदानाय स्वाहा’- से उदान तृप्त होता है। उदान से त्वचा, त्वचा से वायु, वायु से आकाश तृप्त होता हैं। आगे दोनों का आधार तृप्त होता है। भोक्ता, प्रजा, पशु, अन्न, तेज तृप्त होते हैं। ब्रह्म तेज सबको तृप्त कर देता है। यदि भोजन से बचा हुआ (उच्छिष्ट) पदार्थ चाण्डाल को दें तो वह कृत्य आत्मा रूप वैश्वानर में यज्ञ करने के समान है।
बृहदारण्यक उपनिषद् भी अन्न की व्याख्या करता है—
परमपिता ने ज्ञान और तप के प्रभाव से सात प्रकार के अन्नों का सृजन किया। एक प्रकार का अन्न तो सभी के लिए, दो प्रकार का देवताओं के लिए, तीन प्रकार का अन्न स्वयं के लिए, एक प्रकार का अन्न पशुओं के लिए सृजित किया। इन अन्नों का सदैव भक्षण किया जाता है, फिर भी ये समाप्त नहीं होते। यही अमृत भाव है। एक अन्न धरती से पैदा होता है- सभी के लिए। देवताओं के अन्न में एक यज्ञ द्वारा दिया जाने वाला, दूसरा- प्रत्यक्ष अर्पण द्वारा। अत: यज्ञों को कामनापूर्ति के लिए न करें- ये देवों के लिए निर्धारित हैं। पशुओं को दिया गया अन्न- दूध रूप में हमको प्राप्त होता है। अन्न का क्षय इसलिए नहीं होता क्योंकि पुरुष ‘अक्षय’ है और बार-बार अन्न-उत्पादन में समर्थ है। श्वास लेने वाले और श्वास न लेने वाले सभी पय पर निर्भर हैं।
परमपिता ने ज्ञान और तप के प्रभाव से सात प्रकार के अन्नों का सृजन किया। एक प्रकार का अन्न तो सभी के लिए, दो प्रकार का देवताओं के लिए, तीन प्रकार का अन्न स्वयं के लिए, एक प्रकार का अन्न पशुओं के लिए सृजित किया। इन अन्नों का सदैव भक्षण किया जाता है, फिर भी ये समाप्त नहीं होते। यही अमृत भाव है। एक अन्न धरती से पैदा होता है- सभी के लिए। देवताओं के अन्न में एक यज्ञ द्वारा दिया जाने वाला, दूसरा- प्रत्यक्ष अर्पण द्वारा। अत: यज्ञों को कामनापूर्ति के लिए न करें- ये देवों के लिए निर्धारित हैं। पशुओं को दिया गया अन्न- दूध रूप में हमको प्राप्त होता है। अन्न का क्षय इसलिए नहीं होता क्योंकि पुरुष ‘अक्षय’ है और बार-बार अन्न-उत्पादन में समर्थ है। श्वास लेने वाले और श्वास न लेने वाले सभी पय पर निर्भर हैं।
अत: पय का अर्थ मात्र दूध नहीं है। पय: पृथ्वियां पयऽओषधिषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधा:-कारण रूप पान करने योग्य पोषक प्रवाह है।
स्वयं के लिए तीन अन्न—मन, प्राण, वाक् हैं। सभी कार्य मनोयोग से सम्पन्न होते हैं। मन ही देखता-सुनता भी है। शब्द ही वाणी है, वाक् शक्ति है। इसी से सम्पूर्ण अभिव्यक्तियां होती हैं। आत्मा की निर्भरता शरीर के पंच प्राणों पर रहती है। इन तीनों अन्नों से ब्रह्म को शरीरस्थ तथा प्रकृति में व्याप्त ब्राह्मी चेतना पुष्ट होती है।
स्वयं के लिए तीन अन्न—मन, प्राण, वाक् हैं। सभी कार्य मनोयोग से सम्पन्न होते हैं। मन ही देखता-सुनता भी है। शब्द ही वाणी है, वाक् शक्ति है। इसी से सम्पूर्ण अभिव्यक्तियां होती हैं। आत्मा की निर्भरता शरीर के पंच प्राणों पर रहती है। इन तीनों अन्नों से ब्रह्म को शरीरस्थ तथा प्रकृति में व्याप्त ब्राह्मी चेतना पुष्ट होती है।
अन्न की उपरोक्त व्याख्या सृष्टि क्रम को स्पष्ट करने वाली है। जैसे सत् के संकल्प से तेज, तेज से जल, जल से पृथ्वी बनी। द्युलोक तेजस का ही लोक है। संकल्पपूर्वक तेजस के विभाजन से अप् तत्त्व बना। यह सृष्टि का मूल क्रियाशील तत्त्व है। स्वयंभू प्राणों का लोक है। सृष्टि युगल तत्त्व से आपोलोक (परमेष्ठी) से ही शुरू होती है। इसी के लिए मम योनिर्महद् ब्रह्म कहा गया है। अप् ही द्युलोक का जल है। सृष्टि जल से ही होती है। अप् से ही आठ स्तरों पर पृथ्वी का और स्थूल देह का निर्माण होता है। ऋषि पृथ्वी निर्माण की एक अन्य प्रक्रिया भी देखते हैं। तेजस ही सूर्य रूप में प्रकट हुआ। तेजस के अप् तत्त्व में संघात से अन्तरिक्ष में परमाणु कणों और जल की उत्पत्ति हुई। जल एवं सूक्ष्म कणों के संयोग से स्थूल कणों के रूप में पृथ्वी तत्त्व बना।
यही पंचाग्नि का स्वरूप भी है। सृष्टि पंचपर्वा है- स्वयंभू से चलकर पृथ्वी तक आती है। स्वयंभू में सृष्टि नहीं होती। अत: पृथ्वी के आगे पुरुष सृष्टि इसको पंचपर्वा बना देती है। यहां भी तेज से जल (सोम) पैदा होता है। पर्जन्य से पृथ्वी-अन्न पैदा होता है। अन्न से पृथ्वी (पुरुष शरीर) निर्मित होता है।
क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com
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