गीता: कृष्ण की क्रान्त-दृष्टि
अग्नि सर्वत्र व्याप्त रहता है। नभ में सूर्य, थल में अग्नि और जल में विद्युत रूप में रहता है। ब्रह्म भी इसी प्रकार कर्म रूप में रहता है। कर्म ही धर्म बनते हुए पुन: ब्रह्म बन जाता है। आत्मा का एक भाग ईश्वर प्रजापति तथा दूसरा जीव प्रजापति है। यही ब्रह्म और कर्म रूप है। कर्म का आधार भी कामना ही है। अत: जैसे ही व्यक्ति कामना से मुक्त होता है, वह कर्म समाप्ति से अकर्म रूप ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। सृष्टि की शुरुआत ही कामना है। इस कामना का मूल भी ‘काम’ ही है-‘एकोऽहं बहुस्याम्’ ही है। कामना ही ब्रह्म की शक्ति है- माया है। ब्रह्म की सारी सृष्टि रचना का केन्द्र कामना है। हर प्राणी ब्रह्म है- आत्मस्वरूप है। उसका जीवन भी कामना पर आधारित है। ब्रह्म की कामना से विश्व और प्राणी की कामना से विश्व का प्रसार अथवा निरन्तरता।
सम्पूर्ण सृष्टि माया की कृति है। ब्रह्म प्रत्येक कृति के केन्द्र में प्रतिष्ठित है। दिखाई माया-स्त्री- ही देती है। ब्रह्म में अकर्ता भाव है, दृष्टा भाव है, किन्तु उसके बिना भी सृष्टि नहीं है। माया ही कामना बनकर कर्म रूप लेती है। कामना सदा मन में पैदा होती है, शरीर या बुद्धि में नहीं होती।
कामना को मन का बीज कहा है-
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत। (ऋ.10.129.4)
सृष्टि की शुरुआत कामना-बीज से ही होती है। कामना का आधार स्वयं का प्रसार-ब्रह्म रूप में- सृष्टि रूप में। कर्म का आरंभ भी कामना ही है। कामना का आधार विषय-ज्ञान है। ज्ञान ही ब्रह्म है। अत: कर्म ही ब्रह्म है। कर्म का आधार जहां माया है, वहीं अकर्म का आधार ब्रह्म है। जिस कर्म में फल की कामना न हो, वह अकर्म है। कर्म करे और फल न चाहे अथवा फल को नष्ट करता जाए, वह विकर्म/कुकर्म है। प्रत्येक शास्त्र विरुद्ध कर्म विकर्म कहलाता है। विकर्म हमेशा दु:ख बढ़ाता है। कुकर्म शुद्ध नरक का द्वार है।
कामना शब्द में ही माया की भूमिका दिख जाती है। ‘का-मना’ अर्थात् मन कौन है, मन में क्या है। मन मायारूप कामना का- इच्छाओं का घर है। माया ही कामना बनकर जीवन में प्रवेश करती है। सृष्टि कर्मों में प्रेरित करती है। जन्मचक्र में उलझाए रखती हैं। इस प्रवृत्ति रूप कामना का दूसरा छोर है- ‘काम-ना’ अर्थात् कर्म से निवृत्ति। कर्म से सर्वथा विमुख होना दुरुह है अपितु यहां फल में आसक्ति रखकर कर्म करने का निषेध बताया है। माया ही इस निवृत्ति मार्ग पर चढ़ाकर नैष्कम्र्यता की ओर प्रेरित करती है। यही मुक्तिसाक्षी मार्ग है। कृष्ण इसी अकर्म के लिए संकेत करते हैं।
गीता में ब्रह्म और कर्म का विस्तार है। ब्रह्म की व्यापकता भी विभूति रूप में स्पष्ट है। परा-अपरा प्रकृतियां कर्म आवरण हैं- योनियां, कर्म का स्वरूप, दैवी/आसुरी सम्पदा की व्याख्या, त्रिगुण, वर्ण, आश्रम, भक्ति आदि सृष्टि स्वरूपता का वर्णन है। इनका आपसी व्यवहार, आहार और अन्न का ब्रह्म स्वरूप, यज्ञ-तप-दान रूप धर्म का त्रिगुणी भेद एवं निस्त्रैगुण्य होने के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। मनोविज्ञान और कर्म-दर्शन गीता का बाहरी स्वरूप है, माया भाव है। ब्रह्म भाव का ज्ञान ही गीता का विज्ञान है। ब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग भी माया ही है। माया रोक लगाती है। जीव को चुंगल से निकलने नहीं देती। एक विशेष आकर्षण-चकाचौंध से बांधे रखती है। माया के साम्राज्य का अन्तिम छोर ही ब्रह्म है।
सम्पूर्ण जीवन माया की माया है, ब्रह्म कहीं कर्ता भाव में नहीं है। लगता ऐसा है जैसे मैं ही कर्ता हूं। मैं ब्रह्म होकर भी कर्ता नहीं हूं- यही गीता का सार है। ‘‘हजारों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है। उनमें भी कोई एक मुझे तत्त्व से जानता है।’’ (गीता 7/3)। अगले ही श्लोक में कह दिया कि पंच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार ये मेरी जड़ (अपरा) प्रकृति है। दूसरी जीवरूपा चेतन प्रकृति है। सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होते हैं। मैं जगत का प्रभव-प्रलय रूप कारण हूं। (7/6) । मैं ही सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज हूं। (7/10) । प्रकृति के त्रिगुण से परे हूं अत: ओझल रहता हूं।
जगत की 84 लाख योनियों में मानव योनि ही एकमात्र कर्मयोनि है। शेष सभी भोग योनियां हैं। अत: मानव योनि को श्रेष्ठ एवं दुर्लभ कहा है। अन्य योनियों में ब्रह्म का विस्तार भी प्रकृति के नियंत्रण में रहता है। मानव स्वतंत्र रहता है। स्वीकृति तो यहां भी दोनों की चाहिए। इसमें प्रारब्ध की बड़ी भूमिका रहती है। पशु-पक्षियों का संचरण एक समूह रूप में, वातावरण के अनुसार एक क्षेत्र विशेष में अधिक रहता है। उसका आहार भी प्रकृति द्वारा नियंत्रित रहता है। अन्न में एक ओर ब्रह्म यात्रा करता है, दूसरी ओर जीव भी यात्रा आहार से ही करता है। इस जीव के मन का निर्माण अन्न से ही होता है। वह भी प्रकृति के नियंत्रण में रहता है।
मानव शरीर में भी जीव और ईश्वर आत्मा आते तो अन्न के माध्यम से ही हैं, किन्तु आहार का निर्णय मानव स्वयं ही करता है। इस कारण उसके मन का निर्माण प्रकृति के साथ-साथ उसके स्वयं के विवेक पर भी निर्भर रहता है। आहार का अर्थ है, जिसका हम भोग करें, अपने स्वरूप निर्माण के लिए। इसी आधार पर हम स्त्री को भोग्या कहते हैं जो कि स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म मे स्त्री ही भोक्ता है। भीतर अग्नि है जिसमें पुरुष का सोम आहूत होता है। स्थूल में आहार सारा सोम होता है। अग्नि को समर्पित होता है। सृष्टि सूक्ष्म से चलती है। आत्मा भी सूक्ष्म है, मन-बुद्धि भी सूक्ष्म हैं।
बुद्ध्यते अनया सा बुद्धि: अर्थात् जिससे जाना जाता है, वह बुद्धि है। अध्यात्म संस्था में जो तत्त्व अपने स्थान पर प्रतिष्ठित रहता हुआ विषयों का ज्ञान करता है, वही बुद्धि कहलाता है। अव्यक्त (अक्षर) को मूल में प्रतिष्ठित कर व्यक्त (क्षर) की ओर जाना कर्मयोग है। व्यक्त से अव्यक्त की ओर जाना ज्ञानयोग है। कृष्ण ने अव्यक्त ज्ञान और अव्यक्त विज्ञान का समावेश कर उन्हें बुद्धियोग बताया है। सारा व्यक्त भाव अव्यक्त का ही रूपान्तर है। बिना व्यक्त विज्ञान को समझे अव्यक्त का ज्ञान प्राप्त कर लेना असम्भव है। इसी प्रकार बिना अव्यक्त ज्ञान के समावेश के व्यक्त ज्ञान ईश्वरता से वंचित है। बिना व्यक्त विज्ञान के समावेश के अव्यक्त ज्ञान ईश्वरता से वंचित है। ज्ञान-कर्म दोनों का सम्बन्ध ही योग है।
‘समत्वं योग उच्यते।’ कम्पन न होना, एक स्थान पर आत्मा प्रतिष्ठित रहे, यही शान्ति-समता है। क्योंकि आत्मा ज्ञानमूर्ति भी है, कर्ममूर्ति भी है। जब तक आत्मा के ज्ञान-कर्म समतुलित नहीं होंगे, तब तक समता का उदय नहीं होगा। दोनों का समतुलन ही ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ है। इसी कौशल से शान्ति का उदय होता है। इसी कारण कृष्ण अर्जुन को योगी बनने का उपदेश देते है। ‘तस्माद्योगी भवार्जुन।’ बुद्धियोगी पुरुष का आत्मा अपने आप में पूर्ण तृप्त रहता है। वह सारी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुकता है। कूटस्थ अवस्था में विराजमान रहने वाला वह योगी कंकर और कंचन को समान भाव में देखता है और वही पूरा युक्तयोगी कहा जाता है।
गीता से पूर्व भी कर्म-ज्ञान-भक्ति योग थे, जिनको आज भी दर्शन की तरह बताया जाता है। स्थूल जीवन जीने का मार्ग है वह। इस कारण आज भी गीता का विज्ञान प्रकाशित नहीं हो पाया। गीता कर्म संन्यास की बात नहीं करता। भक्ति का कर्म योग के बिना पूर्ण है? भक्ति स्वयं कर्म ही है। कर्म को ब्रह्म रूप जीने के लिए जो ज्ञान चाहिए, उसे कृष्ण ने बुद्धियोग कहा। वैराग्य बुद्धि योग की ऐसी व्याख्या गीता से पूर्व में नहीं हुई। आप गृहस्थ रहें, परिवार का पालन भी करें, व्यवसाय/युद्ध कुछ भी करें, इनका आपके योग पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। ये सारा आपका भौतिक जीवन है, स्थूल है। योग तो सूक्ष्म की व्यवस्था है। इनसे ही तो अलग ऊपर उठना है। भीतर के भी विषयों से विरक्त रहना है। इसके लिए शरीर से भीतर ‘हृदय’ में प्रतिष्ठित रहना है जहां आत्मा प्रतिष्ठित रहता है, ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राणों का जो आश्रय है। आत्मरश्मियों के कारण हृदय को समत्व योगानुगत कहा गया है। संसार में मोह है, शरीर में राग है। इनसे हटने का नाम द्वेष है। हृदय में प्रतिष्ठित रहना राग-द्वेष-मोह से मुक्त होना है। स्थितप्रज्ञ हो जाना है। यही जीवन की समता है। अन्य सारे भाव विषमता है।
योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। (गीता 2.48)
क्रमश:
Hindi News / Prime / Opinion / गीता: कृष्ण की क्रान्त-दृष्टि