गीता में जगह-जगह संकेत है कि सृष्टि में मेरे अतिरिक्त कुछ नहीं है। यही सन्देश ‘ममैवांशों जीवलोके’ (15.7) भी दे रहा है। मर्म यह है कि सब कुछ होते हुए भी कोई मुझे जानता नहीं है, मानता भी नहीं है। योगी भी मेरे निमित्त भाव तक ही पहुंच पाते हैं। जीवरूप में अक्षर पुरुष हूं- षोडशकल। वस्तुत: मैं अक्षर का भी आलम्बन हूं। अव्यय हूं, द्रष्टा हूं। मेरे अतिरिक्त कोई अन्य द्रष्टा, श्रोता, मनन करने वाला या जानने वाला नहीं है। मैं ही अन्तर्यामी हूं, अविनाशी हूं। सभी प्राणी मुझमें माला की तरह पिरोए हुए हैं (गीता ७/७)। इसी तरह- ‘अहं क्रुतुरहं यज्ञ:…(9.16)’ कर्म भी मैं हूं, कर्ता भी मैं, करण भी मैं और फल भी मैं ही हूं। जिस यज्ञ में अर्पण ब्रह्म है, हवन द्रव्य ब्रह्म है, कर्ता ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म और आहुति क्रिया भी ब्रह्म है, उस यज्ञ का फल भी ब्रह्म है—
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।। (गीता 4.24) आत्मा सबसे शक्तिशाली पदार्थ है। इसके केन्द्र में ब्रह्म बैठा है। सही बात यह है कि सूक्ष्म शरीर षोडशी आत्मा का आश्रय है। शरीर में ही सूक्ष्म और कारण शरीर रहते है। दोनों की अभिव्यक्ति स्थूल शरीर ही है। प्राण रूप सूक्ष्म शरीर सभी गतिविधियों का संचालन करता है। कारण शरीर या अव्यय पुरुष में सप्तऋषि प्राण रहते हैं। इनसे ही पितर प्राण बनते हैं। दोनों मिलकर देव प्राणों का निर्माण करते हैं। ये तीनों मिलकर स्थूल सृष्टि की रचना करते हैं। चूंकि आत्मा हर प्राणी में एक है- उनका आपस का सम्बन्ध ही समानता का प्रमाण है। इसी में जीवात्मा का आकर्षण-विकर्षण सम्बन्ध फलित होता रहता है। आत्मा का लिंग नहीं होता। प्राण का भी लिंग नहीं होता। मूल में तो ब्रह्म भी प्राणात्मक ही है।
शरीर लिंगात्मक होता है। युगल सृष्टि का अर्थ भी तो यही है। किन्तु एक बड़ा भेद कर दिया प्रकृति ने नर-नारी में।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।। (गीता 4.24) आत्मा सबसे शक्तिशाली पदार्थ है। इसके केन्द्र में ब्रह्म बैठा है। सही बात यह है कि सूक्ष्म शरीर षोडशी आत्मा का आश्रय है। शरीर में ही सूक्ष्म और कारण शरीर रहते है। दोनों की अभिव्यक्ति स्थूल शरीर ही है। प्राण रूप सूक्ष्म शरीर सभी गतिविधियों का संचालन करता है। कारण शरीर या अव्यय पुरुष में सप्तऋषि प्राण रहते हैं। इनसे ही पितर प्राण बनते हैं। दोनों मिलकर देव प्राणों का निर्माण करते हैं। ये तीनों मिलकर स्थूल सृष्टि की रचना करते हैं। चूंकि आत्मा हर प्राणी में एक है- उनका आपस का सम्बन्ध ही समानता का प्रमाण है। इसी में जीवात्मा का आकर्षण-विकर्षण सम्बन्ध फलित होता रहता है। आत्मा का लिंग नहीं होता। प्राण का भी लिंग नहीं होता। मूल में तो ब्रह्म भी प्राणात्मक ही है।
शरीर लिंगात्मक होता है। युगल सृष्टि का अर्थ भी तो यही है। किन्तु एक बड़ा भेद कर दिया प्रकृति ने नर-नारी में।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता।। (गीता 14.4) सभी योनियों की माता प्रकृति है और बीज का वपन करने वाला पिता मैं हूं। यही सृष्टि का मूल रहस्य है। जो पिता है, बीज का धारक है, ब्रह्म है। जहां वपन होता है, माता है, प्रकृति है। माता-पिता का यह भेद शाश्वत है। दोनों ही एक-दूसरे का स्थान नहीं ले सकते। बस एक-दूसरे के पूरक बने रह सकते हैं। एक बीजप्रदाता है, दूसरी धरती माता। आपसी व्यवहार दोनों के पूर्व कर्मों के फलों पर निर्भर करेगा। न कोई अच्छा है, न कोई बुरा। जो जैसा प्रकृति ने बनाया, वैसा है।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता।। (गीता 14.4) सभी योनियों की माता प्रकृति है और बीज का वपन करने वाला पिता मैं हूं। यही सृष्टि का मूल रहस्य है। जो पिता है, बीज का धारक है, ब्रह्म है। जहां वपन होता है, माता है, प्रकृति है। माता-पिता का यह भेद शाश्वत है। दोनों ही एक-दूसरे का स्थान नहीं ले सकते। बस एक-दूसरे के पूरक बने रह सकते हैं। एक बीजप्रदाता है, दूसरी धरती माता। आपसी व्यवहार दोनों के पूर्व कर्मों के फलों पर निर्भर करेगा। न कोई अच्छा है, न कोई बुरा। जो जैसा प्रकृति ने बनाया, वैसा है।
सृष्टि के लिए स्त्री-पुरुष का युगल होना जरूरी है। धरती में उर्वरता होनी चाहिए, पोषक तत्त्व भी रहने चाहिए (पंच महाभूत) तथा ऋतुकाल में बीज ग्रहण करने की, पोषण की क्षमता भी चािहए। जबकि बीज के साथ कुछ अन्य शर्तें अथवा अनिवार्यताएं भी हैं।
चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:। (गीता 4.13)
जहां प्रकृति (अपरा) को अष्टधा बताया है (7.5), वही पुरुष में चार वर्ण (वीर्य) तीन गुण, सप्त पितृ संस्थाओं से नित्य संयोग, प्रारब्ध आदि बीज का अंग होते हैं। ये स्त्री शरीर में उपलब्ध नहीं होते। वहां केवल प्रकृति (सत्त्व-रज-तम) अहंकृति और आकृति होती है। सृष्टि विस्तार -एकोऽहं बहुस्याम्- भी पुरुष का ही होता है। ‘पुरुषार्थ’ शब्द भी पुरुष पर ही लागू होता है। अर्थात् मोक्ष भी बीज का ही होता है। स्त्री अद्र्धांगिनी रूप से साथ ही रहती है।
जहां प्रकृति (अपरा) को अष्टधा बताया है (7.5), वही पुरुष में चार वर्ण (वीर्य) तीन गुण, सप्त पितृ संस्थाओं से नित्य संयोग, प्रारब्ध आदि बीज का अंग होते हैं। ये स्त्री शरीर में उपलब्ध नहीं होते। वहां केवल प्रकृति (सत्त्व-रज-तम) अहंकृति और आकृति होती है। सृष्टि विस्तार -एकोऽहं बहुस्याम्- भी पुरुष का ही होता है। ‘पुरुषार्थ’ शब्द भी पुरुष पर ही लागू होता है। अर्थात् मोक्ष भी बीज का ही होता है। स्त्री अद्र्धांगिनी रूप से साथ ही रहती है।
पुरुष का जन्म-पालन-पोषण तो प्रकृति की गोद में ही होता है। प्रकृति से प्रभावित पदार्थों को भोगते हुए, प्रकृति के अनुसार ही अन्य योनियों में जन्म लेता है। (गीता 13.2)
उदाहरण के रूप में यदि किसी दंपती का विवाह विच्छेद हो गया, जिसने भारतीय परम्परा से विवाह किया था। दोनों शरीर दूर-दूर रहने लगे। यह विवाह-विच्छेद नहीं है। विवाह तो सूक्ष्म स्तर पर आत्माओं का, प्राणों का हुआ था। कन्यादान में स्त्री के पिता के प्राणों को पति के प्राणों के साथ प्रतिष्ठित किया था। वे तो अभी वहीं हैं। रिश्ता टूटा नहीं है। स्त्री के मूल प्राण पुरुष शरीर में आज भी मौजूद हैं। पुरुष भी अभी तक स्त्री-प्राण से बंधा हुआ है।
उदाहरण के रूप में यदि किसी दंपती का विवाह विच्छेद हो गया, जिसने भारतीय परम्परा से विवाह किया था। दोनों शरीर दूर-दूर रहने लगे। यह विवाह-विच्छेद नहीं है। विवाह तो सूक्ष्म स्तर पर आत्माओं का, प्राणों का हुआ था। कन्यादान में स्त्री के पिता के प्राणों को पति के प्राणों के साथ प्रतिष्ठित किया था। वे तो अभी वहीं हैं। रिश्ता टूटा नहीं है। स्त्री के मूल प्राण पुरुष शरीर में आज भी मौजूद हैं। पुरुष भी अभी तक स्त्री-प्राण से बंधा हुआ है।
भारतीय समाज में सन्तान मां के साथ रहती है। मां चाहे तो गुजारा भत्ता ले सकती है, मना भी कर सकती है। स्त्री का जीवन सन्तान के साथ आगे बढ़ता है, सन्तान के लिए आगे बढ़ता है। सन्तान ही स्त्री को पुनर्विवाह करने से रोकती है। विश्वभर में स्त्रियां सन्तान के पालन-पोषण में गर्व करती हैं। पुरुष पुनर्विवाह की ओर अग्रसर रहता है। पुरुष के लिए यह बड़ी द्वन्द्वात्मक स्थिति होती है। मूल में उसका मन तो आज भी पुरानी पत्नी के साथ ही जुड़ा है। हमारे यहां दूसरी शादी में कन्यादान/फेरे करने की परम्परा नहीं है। क्योंकि दूसरी शादी होती ही नहीं थी। एक बार विधवा होना पूरी उम्र का वैधव्य हो जाता था। आज भी अधिकांशत: पुनर्विवाह लड़का-लड़की दोनों का ही होता हैं। तब लड़की के प्राण या तो पिछले पति (यदि विच्छेद के बाद हो तो) के पास छूट जाते हैं, अथवा पति के साथ उच्छिष्ट हो जाते हैं (मृत्युकाल में)। दोनों ही परिस्थितियों में स्त्री तो निर्वीर्य ही रहती है। हां! पति के हृदय में पुरानी पत्नी के प्राण रहते हैं।
समय के साथ परिवर्तन इतने हो गए कि विवाह भी धीरे-धीरे सामाजिक कर्तव्य तक सीमित होता जा रहा है। जीवन में कामोत्तेजना का वातावरण समय पूर्व होता जा रहा है। तकनीक और अमर्यादित खान-पान, देर से शादी और गर्भ-निरोधक उपचारों ने अधिकांश युवाओं को देह-सुख से जोड़ दिया। नशे के प्रचलन ने आग में घी का काम किया। शादी से पहले शादी का सुख, शादी के आकर्षण भूमिका और रस को छीन लेते हैं। शादी में नया लड़का और नई लड़की होती है बस! न इनको विच्छेद से अन्तर आता है, न ही प्राणों का आदान-प्रदान हो पाता है।
कोर्ट मैरिज में प्राणों की, मन की भूमिका होती ही नहीं है। शरीर मात्र का महत्व रह जाता है। थोड़ा बहुत बुद्धि का प्रभाव। परम्परागत विवाह में स्त्री तो निर्वीर्य होकर मुक्त हो जाती है, पुरुष मुक्त नहीं हो पाता। पुरानी पत्नी, सन्तान मन से निकल ही नहीं पाते। नई पत्नी के साथ भी बंटा-बंटा रहता है। अत: यह रिश्ते एक तरफा ही आगे बढ़ते रहते हैं। एक समझदार- मजबूत (संकल्पवान) स्त्री ही इस स्थिति को समझकर मौन रहती है। स्त्री यदि अतिशिक्षित है तो शीघ्र अपने घर लौट जाएगी। लड़का भी सन्तान से बिछुडऩे का शोक भुला नहीं पाता। सन्तान उसी का अंश होती है। उसमें दादा-नाना दोनों के अंश रहते हैं। अत: बच्चों के साथ जुड़े रहना और पिता का दायित्व पूरा करने का क्रम भी बना रहता है। यह बात पुरानी पत्नी के मन के बोझ को हल्का कर देता है। वह आसानी से दूसरे विवाह के लिए राजी नहीं होती। वह तो सदा उसी की होकर जीती रहती है। पुरुष भीतर से स्त्री है- ऋत है। स्वयं को समेट नहीं पाता।
क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com
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