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निष्काम कर्मयोग और अहंकार से दूर रहने का संदेश ! ‘नैष्कम्र्यता ही ब्राह्मी स्थिति’ पर प्रतिक्रियाएं

Reaction On Gulab Kothari Article: पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी के विशेष लेख -‘नैष्कम्र्यता ही ब्राह्मी स्थिति’ पर प्रतिक्रियाएं-
 

Dec 16, 2023 / 04:33 pm

Akshita Deora

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Reaction On Gulab Kothari Article: नैष्कम्र्य को निष्काम कर्मयोग के रूप में निरूपित करते हुए ज्ञानयोगियों के इसे ब्रह्म को प्राप्त करने का साधन बताते पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी के आलेख ‘नैष्कम्र्यता ही ब्राह्मी स्थिति’ को प्रबुद्ध पाठकों ने मन को साधने वाला बताया है। पाठकों ने ‘शरीर ही ब्रह्मांड’ आलेखमाला की एक यादगार कड़ी के रूप में प्रस्तुत इस आलेख को अहंकार से दूर रहने का एक सशक्त संदेश भी बताया है। पाठकों की प्रतिक्रियाएं विस्तार से

ईश्वरीय योग से मानव जीवन धन्य किया जा सकता है, इसके बाद भी मनुष्य भौतिकता की चकाचौंध में अपने ह्रदय में विराजमान ब्रह्मा को पहचान ही नहीं पाता है। इसके लिए न तो वो स्वयं के भीतर खोजने का प्रयास करता है और न ही अन्य माध्यमों से इस ओर जाने की चेष्ठा। अंतत: वह दुखों के भंवर में क्षणिक खुशियों की तलाश करते हुए संपूर्ण जीवन खो देता है। त्याग और तपस्या से ही आत्मसंतुष्टि मिल सकती है। इसके लिए योग एकमात्र माध्यम है।
पं.विचित्र महाराज, साधक एवं ज्योतिषाचार्य, मार्कंडेय धाम तिलवाराघाट, जबलपुर

एकाग्रता ही ब्राह्मी स्थिति है। सनातन धर्म एवम हमारे शास्त्रों में कर्म को प्रधान मन गया है। गीता इसका सर्वश्रष्ठ उदाहरण है। गीता में कर्म की प्रधानता का उपदेश बड़े ही सुंदर ढंग से दिया गया है। गीता एक प्रकार से कर्म शास्त्र को प्रतिपादित करने वाला ग्रन्थ है। गीता में कर्मयोग एवम ज्ञान योग की बहुत ही सांगोपांग व्याख्या की गई है। कर्म से कामना की सिद्धि की बात कही है। ज्ञान योगी ब्रह्म को पा सकता है। ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, समाधि से जब एकाग्रता बढ़ती है तो मनुष्य में वैराग्यवृत्ति का जन्म होता है।
डॉ शोभना तिवारी, निदेशक, डॉ शिवमंगलसिंह सुमन शोध संस्थान, रतलाम

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आलेख में गुलाब कोठारी ने अहंकार के प्रभाव को कई तरह से स्पष्ट किया है। अहंकार मनुष्य का समूल नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है। अहंकार के रहते किसी शत्रु की आवश्यकता नहीं होती। श्रीरामचरितमानस से लेकर गीता तक में अहंकार को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है।
डॉ. अनुराग सिंह, प्राध्यापक शासकीय महाविद्यालय, देवसर (सिंगरौली)

योग और प्राणायाम के माध्यम से आज करोड़ों लोग स्वस्थ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। योग, ध्यान, प्राणायाम से मन में उठने वाले प्रत्यायों को रोका जा सकता है। योग को देश विदेश में पहचान मिली है। मिताहारी का महत्त्व और विवेचना आलेख में गहनता से प्रस्तुत किए गए हैं। इसमें राग और द्वेष की भी सरल व्याख्या की गई है।
रविशंकर पाटीदार, खरगोन

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गुलाब कोठारी का ‘शरीर ही ब्रह्मांड’ कॉलम मैं लगातार पढ़ रहा हूं। आज उन्होंने अहंकार से दूर रहने की सलाह यह कहते हुए दी है कि अहंकार के रहते किसी अन्य शत्रु की आवश्यकता नहीं पड़ती। अहंकार का दायरा भी बहुत बड़ा है। जीवन के प्रत्येक आयाम के साथ अहंकार का सम्बन्ध है। रावण का उनका उदाहरण सटीक है। जब रावण का अहंकार नहीं टिका तो हम तो आम इंसान है। कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ाने के लिए सबसे पहले अहंकार को बहुत पीछे छोडऩा होगा।
श्याम ठाकुर, रचनाकार, बुरहानपुर

अहंकार से बचने के लिए अध्यात्म ही एक रास्ता है। कोठारी के लेख में इसकी राह प्रदर्शित की गई है। लेख में कोठारी ने अहंकार न करने का संदेश दिया है। मनुष्य अहंकार करता है, उससे समाज में कोई इज्जत नहीं होती। वह मनुष्य अकेला रह जाता है, सारे रिश्ते खो देता है। क्योंकि अहंकारी मनुष्य हमेशा दूसरों को हमेशा नीचा दिखता है। अहंकारी मनुष्य किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, एक वह अपना ही शत्रु बन जाता है और अकेला रह जाता है।
मोहन सिंगरौरे, मंडला

सृष्टि कर्म से चलती है। कर्म के आधार पर ही जीव की योनियां निर्धारित होती हैं। आलेख में कर्म की प्रधानता व महत्ता को प्रतिपादित किया गया है। निश्चित ही मन को एकाग्रचित्त करने के बाद ही मनुष्य स्वयं को ब्रह्मा की ओर ले जा सकता है। या सीधे शब्दों में कहें कि वैराग्य ही ब्रह्ममार्ग पर ले जाने का माध्यम है।
ममता देवी पांडेय, मुरैना

आलेख में कोठारी ने मनुष्य को कर्म के अनुसार ब्रह्म बनने का वर्णन किया है। यह सत्य है कि जिसने अपने शरीर, वाणी, और मन को संयम में रखा, वही व्यक्ति उत्तम है। ध्यान योग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा अहंकार, बल, काम, क्रोध पर नियंत्रण करने वाला व्यक्ति ब्रह्म बन जाता है।
संतोष लहारिया, भिण्ड

यह बात सही है कि जब व्यक्ति सभी सुखों को भोग लेता है, इसके बाद जब उसके मन में एकमात्र ब्रह्म की इच्छा रह जाती है तो उसको ही वैराग्य बोलते हैं। व्यक्ति जन्म से मौत तक अपनी इच्छा से जीवन को जीता है। इस दौरान उसके अन्दर भोग, विलास, लालच और अहंकार सब कुछ रहता है। बाद में उसको भगवान और अच्छे कामों की याद आती है, जबकि व्यक्ति को शुरू से ही सद्कर्मों पर चलकर अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए।
मुकेश अनुरागी, साहित्यकार, शिवपुरी

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