रावण दहन के साथ ही दशहरे का मेला भी खत्म हो गया और रामलीला भी। वास्तव में उत्तर भारत के अधिकांश शहरों में अब रावण दहन का कार्यक्रम इतना भव्य और विस्तारित होने लगा है कि महसूस होता है 30 दिन या 9 दिनों से रामलीला का मंचन सिर्फ इसी एक दिन के लिए किया जा रहा था। राम के आदर्श, राम के त्याग, राम का भातृत्व जो रामलीला के मूल उद्देश्य माने जाते रहे हैं, वे रावण दहन की भव्यता में कहीं पीछे छूट जाते हैं। क्या आश्चर्य कि जो रामलीला कभी राम के राज्याभिषेक की सकारात्मकता के साथ पूरी होती थी, अब रावण दहन के साथ निबटा दी जाती है। वास्तव में दिल्ली से लेकर राज्य की राजधानियों तक की बात करें तो कहीं-कहीं दशहरा राजनीतिक सामथ्र्य के प्रदर्शन का अवसर भी बन कर रह गया है। यह कैसी रामकथा, जिसमें रावण पर तीर चलाने का अधिकार ही राम के पास नहीं हो। कोई कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो, राम के चरित्र को मंच पर निभाए बिना कुछ क्षणों के लिए उसका हरण कैसे कर सकता है? रामलीला के साथ यह उल्लेखनीय है कि यहां हम नाटक नहीं देखते, अभिनय और तकनीक नहीं देखते, बस राम और रामकथा देखते-सुनते हैं।
हाल ही कवि, कलाकार व्योमेश शुक्ला ने प्रसिद्ध रामनगर की रामलीला की एक बहुत प्यारी-सी तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर की है। चारों तरफ जमीन पर लोग बेठे हैं, बीच में सुरसा का कई बांस लंबा एक पुतला खड़ा है। हनुमान जी के लिए सीढिय़ां लगाई जाती हैं, जिनसे हनुमान जी ऊपर सुरसा के मुंह तक जाते हैं, और उसे खोल कर रामकथा के अनुसार उसमें समा जाते हैं, कितना सरल, कितना निश्छल। दर्शक हर साल की तरह चकित। यही रामलीला है, जहां सिर्फ और सिर्फ कथा देखी जाती है। क्या आश्चर्य कि पहले उत्तर भारत के लगभग हर गांव में रामलीला होती थी। दिल्ली की प्रसिद्ध रामलीला में बीते साल रावण की भूमिका निभाने वाले सिने अभिनेता अखिलेन्द्र मिश्रा कहते हैं, ‘छपरा में तो एक चौक का नाम ही भरत मिलाप चौक है, जहां रामलीला होती थी। हमारे गांवों में रामलीला होती थी पर बीते कई वर्षों से नहीं हो रही।’ पंकज त्रिपाठी भी अपने अभिनय की बुनियाद दशहरे के अवसर पर अपने गांव में होने वाले नाटकों को ही मानते हैं। संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित जाने-माने रंगमंच निर्देशक परवेज अख्तर कहते हैं, ‘मेरा बचपन गोरखपुर में बीता, और मेरी स्मृतियों में अभी भी सुरक्षित है कि किस तरह पिताजी पूरे शहर में अलग-अलग स्थानों पर रामलीला दिखाने ले जाते थे। जादू-सा असर रहता था उसका। मुझे थिएटर की तरफ आकर्षित करने में रामलीला का जबरदस्त प्रभाव रहा है।’ वास्तविक अर्थों में रामलीला लोगों के मन में कला की नींव रखती थी।
समय के साथ जैसे-जैसे उत्सवों का व्यवसायीकरण होता गया, रामलीला जैसी परंपरा भी पहले आउटसोर्स हुई, फिर धीरे-धीरे बंद होती गई। अजीब विडंबना है कि गांवों और शहरों में सिमटती गई रामलीला के आकार को कहीं-कहीं तकनीक की आमद ने कुछ यों प्रभावित किया कि जिस स्वाभाविकता और सरलता के साथ रामलीला सीधे दिल में उतरती थी, अब मात्र आंखों और दिमाग को विस्मित करने लगी। शहरों में लोग अब राम को देखने जाएं या नहीं, पर रावण दहन देखने के लिए लालायित रहते हैं। भले ही मेला आयोजकों को स्वरूप में परिवर्तन वांछित लग रहे हों, पर सवाल है कि नए स्वरूप में जो दिख रहा है वह रामलीला है भी? सवाल यह भी कि रामलीला का मंचन कहां हो? पुराने शहरों में जो खाली मैदान थे उन्हें पार्कों में बदल चारदीवारी से बंद कर दिया गया, और नए बसे शहरों में मैदान की कल्पना भी विलासिता है। क्या आश्चर्य कि आने वाले दिनों में ‘रामलीला मैदान’ अतीत की बात बनकर रह जाएं।
वास्तव में रामलीला हमारी ऐसी कला परंपरा थी, जिसे अपनी श्रद्धा से, अपनी आवश्यकता से हमने समृद्ध किया था। आज रामलीला तो है, लेकिन वह हमारी है यह कह पाना आसान नहीं। समय के दबाव में हाल के वर्षों में हमारी कई परंपराएं हाथ से फिसली हैं। यदि आज नहीं पकड़ सके तो रामलीला को भी हाथों से फिसलने से रोक नहीं सकेंगे।