नेतृत्व के बिना न परिवार चलता है और न समाज, न देश और न लोकतन्त्र। इसीलिए हर संस्था में प्रमुख या मुखिया का प्रावधान है। ताकि वह अधिकृत तौर पर सम्बन्धित संस्था का बेहतर संचालन करे। उस पर नियन्त्रण रखे और उसकी बाधाएं दूर करते हुए उन्नति की ओर ले जाए।
जिलों में मुखिया के तौर पर यह भूमिका कलक्टर के जिम्मे होती है। जिलों में वह सरकार का भी सबसे बड़ा प्रतिनिधि होता है और जनता का भी। इस नाते उसका दायित्व है कि वह मजबूत सेतु बने और बना रहे। न केवल सरकारी योजनाओं-कार्यक्रमों का लाभ जनता तक प्रभावी ढंग से पहुंचाए बल्कि जनता की पीड़ा-परेशानियां सुने और सरकार से उनका निराकरण कराए। नवाचार करे, विकास के नए आयाम गढ़े। उसके रहते जिला खुशहाली की दिशा में नए पायदान चढ़े।
लेकिन पिछले वर्षों में कलक्टरों का ध्यान इन दायित्वों से लगभग हट गया है। उनकी भूमिका कलक्टर की बजाय ‘बड़े बाबू’ की तरह हो गई है। ढेरों कागज, कभी न खत्म होने वाली फाइलें, अनवरत बैठकें, अथाह रिपोर्टें और नेताओं की अनिवार्य जी-हुजूरी। इन सभी में उनका दम खप रहा है। कुछ नया करना या कर गुजरना तो दूर, जनता के प्रति सामान्य दायित्व निभाने पर भी ध्यान नहीं है।
लेकिन पिछले वर्षों में कलक्टरों का ध्यान इन दायित्वों से लगभग हट गया है। उनकी भूमिका कलक्टर की बजाय ‘बड़े बाबू’ की तरह हो गई है। ढेरों कागज, कभी न खत्म होने वाली फाइलें, अनवरत बैठकें, अथाह रिपोर्टें और नेताओं की अनिवार्य जी-हुजूरी। इन सभी में उनका दम खप रहा है। कुछ नया करना या कर गुजरना तो दूर, जनता के प्रति सामान्य दायित्व निभाने पर भी ध्यान नहीं है।
क्या समूचे राजस्थान में कोई ऐसा कलक्टर है, जिसने शहरी जनता से समन्वय सतत बेहतर बनाने, गांवों की चौपालों में शामिल होने, गांवों में रात्रि ठहराव करने का सिलसिला अब तक बरकरार रखा हो? जनता से दूरी का यह सिलसिला आखिर कब तक चलेगा? जनता के काम नहीं होंगे, लोगों की परेशानियां दूर नहीं होंगी तो क्या मर्ज बढ़ता नहीं जाएगा? जरूरतों के आधार पर विकास की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो क्या जिलों के रूप में पिछड़ते-पिछड़ते पूरा राजस्थान गर्त में नहीं चला जाएगा?
क्या उतना ही काम और विकास होगा, जितना ‘ऊपर’ से कागजों में उकेरकर जिलों को दिया जाएगा? जिलों में जनता के बीच बैठने वाला कलक्टर क्या व्यावहारिकता और आवश्यकता के पैमाने को नजरअंदाज ही करता रहेगा? कागजी आदेशों की पालना कराने में जनता का हित भी सदा के लिए भुला बैठेगा?
सोचने वाला बिन्दु यह है कि कलक्टर ही फाइलों-बैठकों में व्यस्त रहकर खुश हैं या सरकार उन्हें जनता के काज नहीं साधने देना चाहती? यदि कलक्टर खुद काम नहीं करना चाहते तो पद और अधिकारों पर कुंडली क्यों? यदि सरकार उन्हें बांधे रखना चाहती है तो ‘जनता के लिए’ का खोखला नारा क्यों? नीति नियंताओं को इस पर विचार करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि कलक्टरों पर काम का बोझ है, तो अनुपयोगी-अनुत्पादक कार्यों को चिह्नित करे।
जिन बैठकों का वर्षों से कोई सार नहीं निकला, उन्हें बन्द करना चाहिए। जो बैठकें-गतिविधियां ज्यादा अहम नहीं हैं, उनका जिम्मा कलक्टर के बजाय किसी अन्य अधिकारी को देना चाहिए। यदि सरकार को लगता है कि काम का बोझ केवल बहाना है, तो इस बहाने की आड़ में जनता से कन्नी काट रहे कलक्टरों पर कार्रवाई करनी चाहिए। बोझ हो या बहाना, हल तो निकालना होगा। वरना जनता जिस दिन हल निकालने उतरेगी, उस दिन न कलक्टरों के पास कोई हल होगा और न सरकार के पास।