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अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव: दोनों दल भारत से करीबी संबंधों के पक्षधर

भारत-अमरीकी साझेदारी अब सैन्य और आर्थिक क्षेत्र से लेकर उच्च तकनीक, अंतरिक्ष, साइबर और स्वास्थ्य क्षेत्र तक विस्तृत बहुआयामी साझेदारी है। यह चुनाव नतीजों के बाद भी बनी रहेगी, क्योंकि यह दोनों के राष्ट्रीय हितों पर आधारित है और साझा मूल्यों से गुंथी है।

जयपुरNov 04, 2024 / 01:45 pm

विकास माथुर

अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान पांच नवंबर हो होगा। अमरीका की अति ध्रुवीकृत राजनीति में भी दोनों राजनीतिक दल भारत के साथ करीबी संबंधों के पक्षधर हैं। नई दिल्ली के लिए आदर्श स्थिति यह होगी कि अगले अमरीकी राष्ट्रपति भारत-अमरीकी साझेदारी को इक्कीसवीं सदी की निर्णायक साझेदारी में बदलने की दिशा में कदम उठाएं। यह सुखद है कि दोनों उम्मीदवार सुदृढ़ भारत-अमरीका संबंधों के हिमायती हैं और दोनों दलों में इस साझेदारी को मजबूती देने के समर्थक मौजूद हैं।
यदि पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप वापसी करते हैं तो उनके कार्यकाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके मजबूत व्यक्तिगत संबंधों का असर होगा। हालांकि इसके बावजूद ट्रंप अपनी विदेश नीति में व्यापार, बाजार तक पहुंच और प्रवासन जैसे मुद्दों का पूरा ध्यान रखेंगे। दूसरी ओर कमला हैरिस भारत को चीन के समकक्ष एक महत्त्वपूर्ण संतुलन शक्ति मानते हुए रणनीतिक साझेदारी को तवज्जो दे सकती हैं और मतभेदों को गहरा नहीं होने देंगी। अमरीका-भारत संबंध साझा मूल्यों, आर्थिक सहयोग और रणनीतिक लक्ष्यों पर आधारित हैं। भारत अपनी रणनीतिक स्थिति, आर्थिक सामथ्र्य और सैन्य क्षमता की वजह से यूरेशियाई भू-भाग और हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में अमरीका के लिए एक आदर्श साझेदार हैं। अमरीका हिंद-प्रशांत और उसके बाहर चीन के सैन्य और आर्थिक विस्तार को रोकना चाहता है। उधर, चीन के साथ भारत की दशकों पुरानी प्रतिद्वंद्विता इन हितों को और साझा कर देती है। हेनरी ट्रूमैन से अब तक के डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति सशक्त भारत को अमरीका के लिए हितकर मानते रहे हैं।

डेमोक्रेटिक सरकारें किसी फौरी लाभ की अपेक्षा किए बिना चीन का मुकाबला करने के लिए भारत की तेज आर्थिक प्रगति की इच्छुक रही हैं। इसके विपरीत आइजनहावर (1953-61) और जॉर्ज डब्ल्यू बुश (2000-08) काल को छोड़ दें तो अधिकांश रिपब्लिकन राष्ट्रपति अमरीकी व्यापारिक हितों के दृष्टिकोण से अमरीका-भारत संबंधों को देखते रहे हैं। इन विभिन्न दृष्टिकोणों के बावजूद पिछले तीन दशकों में डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों प्रशासन के दौरान भारत-अमरीका संबंध फलते-फूलते रहे हैं। अमरीकी नेतृत्व को यह विश्वास है कि भारत की भू-राजनीतिक स्थिति और उजला आर्थिक भविष्य अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में है। पहले ट्रंप प्रशासन के दौरान चीन के साथ प्रतिस्पर्धा ने भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी को गहरा करने में मदद की। 2017 की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में न केवल भारत का प्रमुखता से उल्लेख था, बल्कि इसी वर्ष जब ‘स्वतंत्र और खुला हिंद-प्रशांत’ की अवधारणा शुरू की गई तो भारत प्रमुख देशों में एक था। उल्लेखनीय है कि डॉनल्ड ट्रंप के शासनकाल में ही ऑस्ट्रेलिया, जापान, भारत और अमरीका का चौगुट ‘क्वाड’ एक हकीकत बन सका। जबकि 2016 में ओबामा के समय भारत को प्रमुख रक्षा साझेदार का दर्जा मिला। 

ट्रंप प्रशासन के दौरान भारत को ‘रणनीतिक व्यापार प्राधिकरण-1’ (एसटीए-1) का दर्जा भी मिला, जिससे उसे विभिन्न अमरीकी रक्षा और तकनीकी उत्पादों तक लाइसेंस-मुक्त पहुंच प्राप्त हुई। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में ट्रंप का नजरिया लेन-देन आधारित है। वह संस्थागत दृष्टिकोण के मुकाबले व्यक्तिगत कूटनीति को आगे रखते हैं। वह इस बार भी अपने इस कूटनीतिक दृष्टिकोण की पुनरावृत्ति कर सकते हैं। फिर भी, दूसरा ट्रंप प्रशासन पहले से अलग हो सकता है। हिंद-प्रशांत में चीन के खिलाफ गठबंधनों और साझेदारियों को मजबूत करने की जरूरत लेन-देन आधारित दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करवा सकती है। हालांकि, ऐसा नहीं लगता कि ट्रंप ने अपनी मूल विश्वदृष्टि में बदलाव किया है या पूरी तरह से बदल सकेंगे। उदार अमरीकी उन्नीसवीं सदी से ही भारत की बड़ी वैश्विक भूमिका के पक्षधर रहे हैं। केनेडी से बाइडन तक डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति मानते रहे हैं कि भारत अपने लोकतांत्रिक मूल्यों, आर्थिक सामथ्र्य और सैन्य क्षमता के कारण एशिया में चीन के मुकाबले के लिए आदर्श साझेदार और वैकल्पिक मॉडल है। बाइडन प्रशासन में चीन के प्रति ट्रंप प्रशासन की नीतियां जारी रहीं तथा भारत के साथ संबंध और गहराए। हैरिस भी संभवत: इसी मार्ग का अनुसरण करेंगी। राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे चाहे कुछ भी आएं, यह रणनीतिक साझेदारी जारी रहेगी। हालांकि कुछ पुराने और कुछ नए बिंदुओं पर तनाव की गुंजाइश भी बनी रहेगी।

चुनाव अभियान में ट्रंप ने भारत विषयक अपने बयानों में मुख्य रूप से भारत की व्यापार शुल्क बाधाओं और भारतीय बाजार में अमरीकी सामानों की अधिक पहुंच का उल्लेख किया। इसलिए, यदि वह वापसी करते हैं तो व्यापार संबंधी मुद्दे एक बार फिर प्रमुख रहेंगे। दूसरी तरफ हैरिस प्रशासन भारत के स्वदेशीकरण और संरक्षणवाद की अधिक समझ रखते हुए व्यापार मुद्दों को निजी तौर पर हल करने की कोशिश कर सकता है। ट्रंप के पहले कार्यकाल में छात्रों, कामगारों और स्थायी निवास यानी ग्रीन कार्ड के लिए वीजा पर प्रतिबंध लगाए गए थे। जिससे कई भारतीय छात्रों और पेशेवरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। हाल ही में बरास्ता मैक्सिको और कनाडा अमेरिका में अवैध भारतीय प्रवासी बढ़ रहे हैं। यदि ट्रंप लौटते हैं तो प्रवासन मुद्दा तनाव का बिंदु हो सकता है। हैरिस प्रशासन में इस मुद्दे पर तनाव की संभावना कम है। दोनों देशों ने पिछले दो वर्षों में उच्च-तकनीकी क्षेत्रों में सहयोग का विस्तार किया है। चुनाव परिणाम कुछ भी रहें पर यह पहल जारी रहेगी। चाहे राष्ट्रपति कोई भी बने, भारत में लोकतंत्र और धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे पर टकराव बना रहेगा। अतीत में डेमोक्रेट इन मुद्दों पर अधिक दबाव डालते रहे हैं, लेकिन बाइडन ने इन मुद्दों को निजी बातचीत से सुलझाना चाहा। यह संभव है कि हैरिस भी सार्वजनिक आलोचना के बजाय निजी दबाव को प्राथमिकता दें। यह न भूलें कि रिपब्लिकन धार्मिक और आर्थिक दोनों मुद्दों पर मुखर रहते हैं। इसलिए भारत में जो लोग मानते हैं कि ट्रंप प्रशासन इन मुद्दों पर कम दबाव डालेगा, उन्हें फिर से सोचना चाहिए।

— अपर्णा पांडे

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