तू डाल-डाल, मैं पात-पात। कानून बनाने वालों और कानून से खिलवाड़ करने वालों के बीच यह खेल पुराना है। जनता को राहत देने के नाम पर सरकारें एक के बाद एक कानून बनाती जाती हैं। उनसे खिलवाड़ करने वाले अफसरों की मदद से गलियां निकाल कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। कानून बनाने के बाद उनकी दृढ़ता से पालना करने की न तो सरकारों की कोशिश होती है और न इच्छा शक्ति। नतीजा यह होता है कि नए-नए कानून बनते रहते हैं पर जनता को कोई राहत नहीं मिलती।
अभी चर्चा एक नए प्रस्तावित कानून-स्वास्थ्य का अधिकार (राइट टू हेल्थ) की है। पन्द्रहवां वित्त आयोग इस अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल करने की सिफारिश कर चुका है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राजस्थान में तो इसे लागू करने की पहल करना चाहते ही हैं, साथ में केन्द्र पर भी दबाव डाल रहे हैं कि स्वास्थ्य के अधिकार को संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाए।
कोविड संक्रमण के दौरान स्वास्थ्य के अधिकार के कानून की काफी आवश्यकता महसूस की गई थी। इसलिए यदि इस दिशा में पहल होती है तो इसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन साथ ही सरकार को ऐसी निगरानी व्यवस्था भी बनानी चाहिए जिससे कानून को भावना के अनुरूप लागू किया जा सके। जनता को वास्तव में राहत मिल सके। आमतौर पर होता यह है कि ऐसे कानूनों का जनता को बहुत कम फायदा मिल पाता है। दबंग लोग अफसरों से मिलकर अपने फायदे के रास्ते निकाल लेते हैं। जनता मुंह ताकती रह जाती है।
राजस्थान ने सूचना का अधिकार कानून लाने में पहले की थी। केन्द्र से भी पांच साल पहले यह कानून राजस्थान में लागू हो गया था। पर आज इसका क्या हश्र है। विभागों में नियुक्त सूचना अधिकारी जानकारी मुहैया या तो कराते ही नहीं है या टालमटोल करते हैं। जानकारी चाहने वालों को सूचना आयोग के चक्कर लगाने पड़ते हैं। कानून में तो यह भी प्रावधान है कि विभागों को प्रमुख सूचनाएं स्वयं उजागर करनी पड़ेगी। पर ज्यादातर विभाग ऐसा नहीं कर रहे। इसी कारण सूचना के अधिकार का दुरुपयोग करने वाले पनप रहे हैं।
शिक्षा के अधिकार का हश्र देखें। इस कानून के अन्तर्गत सामान्य निजी स्कूल तो फिर भी गरीब छात्रों को निशुल्क प्रवेश दे देते हैं, पर ज्यादातर बड़े निजी स्कूलों ने प्रवेश न देने के रास्ते निकाल लिए हैं। कई जगह में प्री-प्राइमरी में प्रवेश दे दिया जाता है और फिर कक्षा एक से सीटें घटा दी जाती हैं। ऐसे गरीब छात्रों को स्कूलों में अलग बैठाने और दूसरी तरह के शुल्क वसूलने की शिकायतें भी मिलती रहती हैं।
ऐसा ही एक कानून बनाया गया- सुनवाई का अधिकार। ज्यादातर मामलों में सुनवाई के निर्धारित समय अधिकारी मीटिंग का बहाना बनाकर गायब हो जाते हैं। अपनी समस्या लेकर आने वाले चक्कर काटते रहते हैं। शायद इसी को देखते हुए सरकार को मंत्रियों और अफसरों को जनसुनवाई के निर्देश देने पड़े। फिर भी जनता से दूर भागने के रास्ते निकाल ही लिए जाते हैं। खाद्य सुरक्षा कानून, केन्द्रीय मोटर वाहन अधिनियम, सामाजिक अंकेक्षण, जवाबदारी कानून, स्वास्थ्य बीमा योजना, नागरिक सेवा केन्द्र, पुलिस अधिनियम, पंचायत राज संशोधन जैसे तमाम नए कानूनों में इसी तरह की पोल मिलती है।
सरकारें कानून बनाकर एक बार वाहवाही लूट लेती हैं और फिर आंखें मूंद कर बैठ जाती हैं। ऐसे में कहने को कानून लागू करने का श्रेय ले लिया जाता है पर धरातल पर जनता ठगी सी महसूस करती रहती है। अफसर लोग कानून की पालना के आंकड़े बनाने में माहिर होते हैं पर आंकड़ों की गहराई में जाएं तो खोखलापन नजर आता है। ऐसे कानूनों के लिए सरकारों पर दबाव बनाने के लिए गैरसरकारी संगठन दोनों हाथों से लड्डू लूटते हैं। एक तरफ वैश्विक संगठनों से आर्थिक मदद लेते हैं और दूसरी ओर दबाव के नाम पर अपनी पैठ बना लेते हैं। कानूनों का वास्तव में कितना लाभ हो रहा है, इसे देखने की फुर्सत उन्हें भी नहीं हैं। युवा शक्ति के पास आज उच्च शिक्षा, तकनीकी दक्षता, ऊर्जा जैसे हथियार हैं। वह चाहे तो इन कानूनों से खिलवाड़ करने वालों को सबक सिखा सकती है।