मतदाताओं ने किसी चेहरे के बिना भी विपक्षी दलों के गठबंधन को इतनी सफलता दी कि वह सरकार बनाने की संभावना के करीब आ गया। चुनावी राजनीति में विकल्पहीनता के नाम पर कोई दल लंबे समय तक सत्ता में नहीं बना रह सकता। विकल्प मतदाता स्वयं खड़े कर देता है। चुनाव परिणाम यह भी बताता है कि कोई दल या राजनेता कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, लोकतंत्र में वह अपराजेय नहीं होता। एक बात और स्पष्ट होती है कि धर्म या संप्रदाय आधारित मुद्दे चुनाव में सफलता की गारंटी नहीं होते। राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा तथा मुख्यमंत्री योगी के काशी, मथुरा के वादों के बाद भी भाजपा को उत्तर प्रदेश में भारी नुकसान हुआ। इसके विपरीत सामाजिक समीकरण को साधते हुए समाजवादी पार्टी ने अपने राजनीतिक जीवन में सबसे अधिक सफलता हासिल की। पिछले लोकसभा चुनाव में जनेऊ पहनकर मंदिरों की परिक्रमा करने वाली कांग्रेस को कोई लाभ नहीं हुआ था। जबकि इस चुनाव में संविधान, आर्थिक असमानता व सामाजिक बराबरी में मुद्दों के साथ उसकी इस चुनाव में बेहतरीन वापसी हुई। दलबदल आज की राजनीति का ‘न्यू नार्मल’ हो चला है लेकिन आम मतदाता इसे किस रूप में लेता है, इसे महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम में देखा जा सकता है। हरियाणा के आयाराम, गयाराम के बाद कुछ साल पहले महाराष्ट्र में हुआ दलबदल काफी चर्चित हुआ। शरद पवार और उद्धव ठाकरे की पार्टी का नाम व चुनाव चिह्न उनसे छिन गया लेकिन मतदाताओं ने उन्हें भारी चुनावी बढ़त देकर मजबूत बना दिया है। भाजपा को भी नुकसान झेलना पड़ा।
हर सरकार के खिलाफ मतदाताओं में सत्ता विरोधी भावना होती है, यह सही नहीं है। लेकिन, अधिक समय तक सत्ता में रहने वाले दल के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर जरूर होती है। बशर्ते उस लहर का लाभ लेने की रणनीति के साथ विपक्ष चुनाव मैदान में उतरे। उड़ीसा विधानसभा चुनाव में भाजपा की तथा आंध्र विधानसभा चुनाव में तेलुगु देशम पार्टी की सफलता इस तथ्य को रेखांकित करती है। विपक्ष की खासकर कांग्रेस की ऐसी तैयारी के अभाव में आधा दर्जन से अधिक राज्यों में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार क्लीन स्वीप किया। 10 साल तक पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार के चलते क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता कटघरे में आ रही थी। इस चुनाव परिणाम ने क्षेत्रीय दलों को नया जीवन दिया है और उनकी अहमियत पुरजोर तरीके से स्थापित हुई है। क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन के चलते ही कांग्रेस को सीटों का लाभ हुआ तो भाजपा को बहुमत तक पहुंचने से रोकने में भी क्षेत्रीय दलों की ही मुख्य भूमिका रही है। क्षेत्रीय दलों के चलते ही एनडीए को बहुमत मिल सका है और केन्द्र सरकार का स्थायित्व क्षेत्रीय दलों के समर्थन पर ही निर्भर रहेगा।
इस चुनाव की सबसे बड़ी पहचान यह उभरी कि यह एक तरह से नई पीढ़ी का चुनाव था। इस चुनाव में ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं, जहां नई पीढ़ी के नेतृत्व ने अपने-अपने दलों को अच्छी खासी सफलता दिलाने में अपना कमाल दिखाया है। उत्तरप्रदेश में मायावती ने नई पीढ़ी को आगे बढ़ाने का अपना फैसला बदल दिया और 10 सीटों वाली बसपा शून्य पर आ गई। इस लोकसभा का चुनाव परिणाम राजनीतिक दलों के लिए अलग-अलग मायने रखता हो लेकिन आम मतदाताओं को बेहद पसंद आने वाला चुनाव परिणाम रहा। आम मतदाता केंद्र में बहुमत वाली सरकार तो चाहता था, लेकिन उतना ही बहुमत जिससे सरकार ठीक-ठाक चल सके, एकतरफा बहुमत वाली सरकार नहीं। देश के अलग-अलग राज्यों के भिन्न-भिन्न चुनाव परिणामों के बाद भी देश में बहुमत वाली सरकार भी बन रही है और एक मजबूत विपक्ष भी उभर आया है। एकतरफा जीत वाली सरकार का न होना लोकतंत्र को मजबूत करता है और देश का आम मतदाता इसी लोकतंत्र का पक्षधर रहा है।
— गिरिजाशंकर