खेलों की इस दुनिया में यूं भारत का कभी कोई दबदबा नहीं रहा। ओलंपिक खेलों में एक दौर था जब हॉकी में जरूर भारत का बोलबाला था। सन् 1928 से 1956 तक लगातार छह बार हॉकी में स्वर्ण पदक हमारे नाम रहा, लेकिन 1980 के बाद से हॉकी में भी हम दूसरे देशों से पिछड़ते गए। एक सौ अट्ठाइस साल के ओलंपिक इतिहास में भारत अब तक कुल दस स्वर्ण पदकों के साथ सिर्फ 35 पदक अपनी झोली में डाल सका है। इस बार हमारे प्रदर्शन को लेकर हर बार की तरह उम्मीदें परवान पर हैं। सवाल यह है कि आबादी के लिहाज से दुनिया में पहले पायदान पर खड़ा भारत खेल जगत में इतना पिछड़ा क्यों है? हर भारतीय के दिमाग में दशकों से यह सवाल कौंधता रहा है। हमसे छोटे – छोटे देश ओलंपिक में अच्छा प्रदर्शन करते हैं लेकिन हम नहीं कर पाते। इसके कारण भी एक नहीं अनेक हैं। असल में खेल हमारे जीवन में कभी प्राथमिकता रहे ही नहीं, न सरकार की प्राथमिकता में और न आम जनता की। अधिसंख्य भारतीय मानते हैं कि बच्चों को खेलकूद में आगे बढ़ाया तो उनका करियर चौपट हो जाएगा। इस बात को भी समझना होगा कि हर परिवार अपने बच्चे के खेलकूद प्रशिक्षण का खर्च वहन भी नहीं कर सकता। सरकारें भी खिलाड़ी तैयार करने और उन्हें आगे बढ़ाने में खास दिलचस्पी नहीं रखतीं। हालत यह है कि ओलंपिक में पदक लाने वाले खिलाड़ी अपने बलबूते या फिर औद्योगिक घरानों के सहारे ही तैयार होते हैं। फिर खेल संगठनों पर ऐसे-ऐसे राजनेताओं और अफसरों ने कब्जा जमा रखा है जिनका खेलों से कोई लेना-देना नहीं है। प्रमुख खेल संगठनों पर अनेक नेता दशकों से काबिज हैं। ऐसे में खेल संगठन राजनीति से उबर ही नहीं पाते। फिर खेलों में हम अपनी जगह कैसे बना सकते हैं?
ओलंपिक में देश के खिलाडिय़ों का चाहे जो प्रदर्शन रहे, उत्साह तो बना ही रहेगा। इस महाकुंभ में अनेक नए कीर्तिमान बनेंगे। नए खिलाड़ी उभरकर सामने आएंगे। आज जब दुनिया युद्ध और टकराव के रास्ते पर खड़ी है, आशा है पेरिस ओलंपिक विभिन्न देशों को जोड़ने का मार्ग प्रशस्त करेगा।