पिछले एक महीने से दिल्ली से लेकर लखनऊ, चंडीगढ़ और पणजी में जो चल रहा है, उसमें स्वार्थ की राजनीति के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा। पांच साल तक कार्यकर्ताओं के दम पर नेतागिरी करने वाले नेता टिकट बंटवारे में अपने और अपने परिजनों के लिए ही संघर्ष करते नजर आ रहे हैं।
बात किसी एक दल की नहीं है। देश की सबसे पुरानी पार्टी हो या सबसे बड़ी पार्टी या फिर क्षेत्रीय दल। टिकट पाना और येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना ही नेताओं का एकमात्र लक्ष्य नजर आ रहा है। पार्टियां परिवारवाद को भी पाल रही हैं और धनबल-बाहुबल को भी। संसद-विधानसभाओं में अच्छे लोगों की संख्या घटने की रिपोर्ट आए दिन आती हैं। जेल में बैठे अपराधी भी चुनाव जीत रहे हैं।
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आज ‘राष्ट्रीय मतदाता दिवस’ है। हर साल की तरह भारतीय लोकतंत्र का महिमा गान होगा। बताया जाएगा कि हम दुनिया में सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं। चुनाव सुधारों को लेकर भी सुनने को मिलेगा। लेकिन हमारा लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है। क्या राजनीति को पैसे और ताकत वालों तक ही सीमित होने दिया जाए? क्या राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका न जाए? क्या चुनाव में होने वाले बेतहाशा खर्च पर अंकुश लगाने की दिशा में सार्थक प्रयास नहीं किए जाएं?
यदि नहीं, तो संकल्प लेने के लिए आज से अच्छा दिन और क्या हो सकता है? देश में चुनाव आयोग की स्थापना हुए 72 साल हो चुके हैं। आयोग भी आज प्रण ले और राजनीतिक दल भी, कि हम दुनिया में सिर्फ सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश ही नहीं हों, बल्कि हमारा लोकतंत्र दुनिया के लिए एक उदाहरण भी हो। काम मुश्किल नहीं, बस जरूरत है तो दृढ़ इच्छाशक्ति की।
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