scriptPatrika Opinion: राजनीतिक दलों को खुद के विचारों पर नहीं भरोसा | Patrika Opinion: Political parties dont trust their own ideas | Patrika News
ओपिनियन

Patrika Opinion: राजनीतिक दलों को खुद के विचारों पर नहीं भरोसा

Patrika Opinion: राजनीतिक दलों से घोषणाएं पूरी करने का रोडमैप मांगना चाहिए कि आखिर देश-प्रदेश की कमजोर वित्तीय सेहत के चलते वादे पूरे करेेगे तो कैसे? चुनाव आयोग को भी चाहिए कि शीर्ष अदालत की सुनवाई की राह देखने के बजाए अभी राजनीतिक दलों से स्पष्टीकरण मांगें।

Jan 29, 2022 / 02:09 pm

Patrika Desk

Patrika Opinion : प्रोटोकॉल की आड़ में वेतन की तुलना बेमानी

Patrika Opinion : प्रोटोकॉल की आड़ में वेतन की तुलना बेमानी

Patrika Opinion: राजनीतिक दल चुनावों से पहले मतदाताओं को अपनी ओर करने के लिए मुफ्त तोहफे व सुविधाएं देने के वादे करते हैं। चुनाव से पहले ऐसे वादे हैरान करने वाले हैं क्योंकि कई बार इस तरह की घोषणाओं का आकार संबंधित राज्य के बजट से भी अधिक होता है। वादों को रोकने के लिए शीर्ष अदालत में एक याचिका भी दायर की गई है। सुनवाई के दौरान अदालत ने चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से पूछा है कि इस तरह के वादे करने वालों के खिलाफ क्या कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।
सबके सामने है कि उत्तरप्रदेश, पंजाब, गोवा समेत पांच राज्यों में हो रहे चुनाव की बाजी अपने नाम करने के लिए राजनीतिक दल मुफ्त स्कूटर, मोबाइल, टेबलेट, गैस सिलेंडर, नकदी देने से लेकर मुफ्त बिजली, पानी और यहां तक कि तीर्थयात्रा के वादे करने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं।

साफ झलक रहा है कि चुनाव जीतने के लिए पार्टियों को अपने राजनीतिक विचारों, सिद्धांतों और नीतियों पर ही भरोसा नहीं है। मुफ्त सौगात बांटने की परंपरा भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से शुरू हुई थी, जिसका विस्तार अब पूरे देश में हो गया है।

मूलत: यह मुद्दा समाज के वंचित या गरीब वर्ग के लोगों के वोटों की सौदेबाजी का है। ऐसे मतदाताओं की केवल कुछ फौरी जरूरतों को पूरा करने का वादा करके राजनीतिक दल उनके वोटों का सौदा करते हैं। दरअसल यह जनता के एक बहुत बड़े वर्ग को गूंगा बनाने की कोशिश भी है। साथ ही एक नई सामंती व्यवस्था की शुरुआत भी।

यह भी पढ़े – करें राजनीति की दिशा बदलने का संकल्प
हमारे राजनीतिक दल यह भूल रहे हैं कि लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता को जो भी सुविधा मिलती है वह उनके अधिकार रूप में स्थायी तौर पर मिलती है, जबकि सामंती या राजशाही दौर में शासक के दया करने पर खैरात या सौगात के रूप में मिला करती थी।

प्रश्न है कि क्या घोषणाओं के मोहपाश का खेल रचने वाले दलों को चुनावी भ्रष्टाचार की श्रेणी में डाला जा सकता है? मुफ्त सौगातों का वादा करना क्या सरकारी खजाने को लुटाने की योजना नहीं है? यह खजाना तो जनता के राजस्व से ही भरा जाता है, फिर वोटों के लिए उसका सौदा राजनीतिक दल कैसे कर सकते हैं?

मुफ्तखोरी की इन घोषणाओं को रोकने के लिए जनता के ही जिम्मेदार तबके को सामने आना चाहिए। राजनीतिक दलों से घोषणाएं पूरी करने का रोडमैप मांगना चाहिए कि आखिर देश-प्रदेश की कमजोर वित्तीय सेहत के चलते वादे पूरे करेेगे तो कैसे? चुनाव आयोग को भी चाहिए कि शीर्ष अदालत की सुनवाई की राह देखने के बजाए अभी राजनीतिक दलों से स्पष्टीकरण मांगे, क्योंकि देर हुई तो कई मतदाता भ्रमजाल में फंसकर लोकतांत्रिक मूल्यों का सौदा कर लेंगे।

यह भी पढ़े – न होने पाए स्थानीय भाषाओं की उपेक्षा

Hindi News / Prime / Opinion / Patrika Opinion: राजनीतिक दलों को खुद के विचारों पर नहीं भरोसा

ट्रेंडिंग वीडियो