हाल ही सम्पन्न पेरिस ओलंपिक में 117 एथलीटों का भारतीय दल एक भी स्वर्ण पदक हासिल नहीं कर पाया। भारत को एक रजत और पांच कांस्य पदक से ही संतोष करना पड़ा। दूसरी ओर पैरालंपिक में भारत अब तक तीन स्वर्ण पदक जीत चुका है। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रेष्ठता हासिल करने के लिए पैरा एथलीटों को सामान्य एथलीटों की तुलना में कहीं अधिक मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन तुलनात्मक रूप से एक ओर जहां उनके लिए सीमित संसाधन उपलब्ध हैं, वहीं पदक जीतने के बाद भी वित्तीय प्रोत्साहन की कमी दिखाई देती है। ओलंपिक खेलों में पदक जीतने वालों के लिए तो सरकार और कॉरपोरेट हाउस खजाना खोल देते हैं। जब पैरा एथलीटों की बारी आती है तो ऐसी उदारता उनके लिए नजर नहीं आती। होना तो ये चाहिए कि पैरा एथलीटों की हौसलाअफजाई को ज्यादा तवज्जो मिले ताकि उन्हें नायक के रूप में पहचान मिले। इतना जरूर है कि सरकार ने कुछ समय से पैरा एथलीटों पर ध्यान देना शुरू किया है। खेलो इंडिया योजना के तहत पैरा एथलीटों को प्रशिक्षण, उपकरण और अन्य आवश्यकताओं के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है। पैरा एथलीटों को भी अर्जुन पुरस्कार, पद्म पुरस्कार, और अन्य राष्ट्रीय खेल पुरस्कार दिए जा रहे हैं। सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी दिया जा रहा है, लेकिन यह सब कुछ सामान्य एथलीटों के बराबर नहीं है।
जाहिर है कि अभी पैरा एथलीटों को बढ़ावा देने के लिए काफी कुछ करने की जरूरत है। संसाधनों और वित्तीय प्रोत्साहन में समानता लाने के लिए और अधिक प्रयासों की आवश्यकता है। पैरा एथलीटों के लिए नीतिगत स्तर पर सुधार किए जाने चाहिए। समाज को भी पैरा एथलीटों के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। हमें उन्हें केवल एक दिव्यांग व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक नायक के रूप में देखना चाहिए जो देश के लिए सम्मान और गौरव में वृद्धि करते हैं।