कोरोना की पिछली दो लहरों के दौर में बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा था, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। एक बात जरूर है कि जहां रोजगार के अवसरों का सृजन हुआ वहां बेरोजगारी दर कम भी हुई है। ओडिशा, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ इसके उदाहरण हैं। इसलिए बेरोजगारी बढऩे के पीछे कोरोना को ही वजह बताना एक बहाना ही कहा जा सकता है।
राजस्थान के पड़ोस में मध्यप्रदेश व गुजरात सरीखे राज्य बेरोजगारी दर कम रखने में कामयाब हुए हैं तो हरियाणा के बाद दूसरे नंबर पर रहते हुए राजस्थान में बेरोजगारी दर में उछाल आया है। यह बताता है कि बेरोजगारी दर बढऩे वाले राज्यों में न केवल सरकारी बल्कि निजी क्षेत्र में भी रोजगार के दरवाजे खोलने में नियोक्ताओं ने कंजूसी ही बरती। डिग्री, हुनर व काबिलियत के बावजूद युवाओं को रोजगार की तलाश में भटकना पड़े तो सरकारी नीतियों की खामी को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
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बढ़ती आबादी ने शहरी इलाकों में पहले ही रोजगार के अवसर कम किए हैं, वहीं गांवों से भी पलायन नहीं रोक पाना इस समस्या को और बढ़ाने वाला रहा है। चिंता की बात यही है कि राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणा-पत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लम्बे-चौड़े दावे करते हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद इन्हें बिसरा देते हैं। सरकारी क्षेत्रों में नौकरी के अवसरों को तो जैसे ग्रहण-सा लग जाता है। प्रतियोगी परीक्षाओं में विलम्ब, अदालती विवादों के चलते सरकारें अपने यहां खाली पदों को भी नहीं भर पातीं। ऐसे में रोजगार के अवसर बढ़ाने की बात कागजी ही साबित होती है।
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जिन राज्यों में बेरोजगारी दर अपेक्षाकृत कम रही है, उनसे राजस्थान और हरियाणा सरीखे प्रदेशों को सबक लेना होगा। जरूरत है कि सरकारें तो रोजगार के अवसर बढ़ाएं ही, निजी क्षेत्र को भी इसके लिए समुचित प्रोत्साहन दें।