कोरोना काल में ज्यादातर कामकाज ऑनलाइन हो रहे हैं, पर चुनाव प्रचार को डिजिटल रैलियों तक सीमित करने से राजनीतिक दलों की परेशानी बढ़ सकती है। खासकर उन दलों की, जो विधिवत प्रचार शुरू नहीं कर सके हैं। मसलन उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की अब तक कोई बड़ी रैली नहीं हुई है। रैलियों पर पूर्ण पाबंदी चुनाव में सभी दलों को समान अवसर देने के लोकतांत्रिक सिद्धांत के प्रतिकूल होगी, जबकि आयोग फैसले पर पुनर्विचार कर रैलियों को सीमित कर सकता है, कोरोना प्रोटोकॉल को लेकर इन्हें निगरानी तंत्र के दायरे में ला सकता है।
चुनाव प्रचार को डिजिटल रैलियों तक सीमित करने से राजनीतिक दलों को उसी तरह की समस्याओं से दो-चार होना पड़ सकता है, जो स्कूलों की ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई में महसूस की जा रही हैं। डिजिटल क्षमताओं के मामले में राजनीतिक दलों के बीच काफी असमानता है।
सिर्फ भाजपा सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों के मामले में सबसे मजबूत है। उसके पास ब्लॉक स्तर तक आइटी सेल हैं और वॉट्सऐप पर भी वह बड़ा नेटवर्क तैयार कर चुकी है। जबकि बाकी दल बहुत पीछे हैं। चुनाव आयोग को इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि दलों की बात लोगों तक और लोगों की बात दलों तक पहुंचे।
यह भी देखें – परमाणु हथियार नहीं, वैक्सीन हो प्राथमिकता
चुनाव प्रचार को डिजिटल रैलियों तक सीमित करने से राजनीतिक दलों को उसी तरह की समस्याओं से दो-चार होना पड़ सकता है, जो स्कूलों की ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई में महसूस की जा रही हैं। डिजिटल क्षमताओं के मामले में राजनीतिक दलों के बीच काफी असमानता है।
सिर्फ भाजपा सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों के मामले में सबसे मजबूत है। उसके पास ब्लॉक स्तर तक आइटी सेल हैं और वॉट्सऐप पर भी वह बड़ा नेटवर्क तैयार कर चुकी है। जबकि बाकी दल बहुत पीछे हैं। चुनाव आयोग को इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि दलों की बात लोगों तक और लोगों की बात दलों तक पहुंचे।
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