इतना ही नहीं, यह कुतर्क देते हुए सांसद महोदय यहां तक कहते हैं कि पन्द्रह लाख तक के भ्रष्टाचार की शिकायत लेकर कोई आता है तो वे साफ कह देते हैं कि इतने में किसी को कुछ नहीं बोलेंगे। यानी एक तरह से वे भ्रष्टाचारियों को खुला प्रमाण पत्र दे रहे हैं। हो सकता है कि जनार्दन मिश्रा की दूसरे नेताओं की तरह यह सफाई भी आ जाए कि यह बात तो उन्होंनेे मजाक में कही थी। लेकिन जिन तक उनका यह संदेश पहुंचा है वे तो समझ ही चुके हैं कि सरपंच से राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले मिश्रा भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर क्या राय रखते हैं। हमारे नेताओं का ऐसा आचरण ही भ्रष्टाचारियों को प्रश्रय देने के लिए काफी है। यह बनागी तो उन जनप्रतिनिधियों की है जो बेतुके बयानों से भले ही खुद को चर्चा में बनाए रखना पसंद करते हों लेकिन जनता उन्हेे उसी नजरिए से देखती है जैसी उनकी सोच रहती है।
नेतृत्व: ‘अनंत’ खिलाड़ी बनकर खेलें
दूसरा उदाहरण उत्तराखण्ड के ग्रामीण अंचल के सरकारी स्कूल का है जहां पोषाहार कार्यक्रम में पहले सवर्ण बच्चे स्कूल में नियुक्त दलित भोजन माता (पोषाहार पकाने वाली) तथा बाद में दलित बच्चे, सवर्ण भोजन माता के हाथ से बनाया भोजन करने से इनकार कर देते हैं। एक पखवाड़े तक चला यह विवाद अब भले ही निपट गया, पर सवाल यह है कि हमारे शिक्षा के मंदिर भी जात-पात को बढ़ावा देने वाले क्यों बनने लगे हैं। छुआछूत से दूर रहने की सीख देने के बजाए शिक्षण संस्थाओं में बच्चों को यह सीख कौन दे रहा है?
Patrika Opinion : खुलने लगी हैं नेताओं की निष्ठा की परतें
जाहिर है ऐसे प्रकरणों में कई बार स्थानीय राजनीति भी हावी होती दिखती है। लेकिन वर्गभेद दूर करने का जो मकसद हमारे शिक्षा मंदिरों में रहता आया है उसे पूरा करने में तो ऐसे उदाहरण बाधक ही बनते हैं। भ्रष्टाचार व छुआछूत सामाजिक दंश बनते जा रहे हैं। शिक्षक हों या नेता, समाज में इन्हें प्रतिष्ठा तब ही मिलती है जब वे चाल, चरित्र और चेहरे को लेकर दोहरा रवैया नहीं रखें।