शीर्ष अदालत के इस फैसले पर किसी को हैरानी नहीं हुई होगी क्योंकि संविधान में तो स्पष्ट उल्लेख है कि धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। कोई ऐसा करता पाया जाता है तो उसके खिलाफ कानून भी हैं। हैरानी तो इस बात की है कि आजादी के अमृतकाल में गणतंत्र की स्थापना के 74 साल बाद तक कैदियों को जेल मैन्युअल के आधार पर जातीय दुराग्रह का शिकार बनाया जाता रहा और किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। लोकतंत्र को कलंकित करने वाले प्रावधानों के खिलाफ किसी पत्रकार को अदालत से आग्रह करना पड़े, इससे अधिक शर्म की बात क्या हो सकती है?
कैदियों की जाति देखकर उनके काम के निर्धारण को औपनिवेशिक काल के भी काफी पहले से चली आ रही कुप्रथाओं का नतीजा कहा जा सकता है। औपनिवेशिक काल में भी बदलाव इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि अंग्रेजों की नजर में हमारे मानवाधिकारों का कोई मूल्य नहीं था। वे तो ऐसे नियम बना रहे थे जिनसे भारतीयों को और बांटा जा सके। पर आजादी के बाद इतने सालों तक हम क्या कर रहे थे? क्या नागरिकों के रूप में यह हम सबकी विफलता नहीं है? ब्राह्मणों से खाने पकाने का काम और ‘हरि’ और ‘चांडाल’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर कथित नीची जातियों से सीवर की सफाई व मैला ढुलवाने को आखिर नियम के रूप में कैसे स्वीकार किया जाता रहा?
जेल मैन्युअल ही नहीं, देश में गणतंत्र की स्थापना के साथ हर उस नियम को बदला जाना चाहिए था, जो संविधान की भावना के खिलाफ है। अब ‘देर आए पर दुरुस्त आए’ कहकर संतोष किया जा सकता है। हालांकि, शीर्ष अदालत को इस फैसले तक लाने का श्रेय पत्रकार सुकन्या शांता को ही दिया जाना चाहिए, जिसने नागरिक धर्म का भी बखूबी निर्वाह किया है। इसीलिए प्रधान न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ ने भी अच्छे शोध वाली जनहित याचिका बताकर सुकन्या शांता की तारीफ की।