पिछले कुछ महीनों से भारत को लेकर चीन के सुर अप्रत्याशित तौर पर बदले-बदले-से लग रहे हैं। पूर्वी लद्दाख की सीमाओं पर चार साल लंबा तनाव खत्म करने पर सहमत होकर उसने इस बदलाव के संकेत दे दिए थे। दरअसल, रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद बदले अंतरराष्ट्रीय समीकरणों को लेकर चीन को लगने लगा था कि भारत के साथ तनातनी उसके हित में नहीं है। तनातनी के कारण उसे पिछले चार साल में बड़ा व्यापार घाटा भी झेलना पड़ा है। डॉनल्ड ट्रंप की वापसी के बाद चीन को अमरीका से व्यापार युद्ध बढऩे का भय भी सता रहा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अपना दबदबा बरकरार रखने के लिए भारत की अनदेखी उसके लिए भारी पड़ सकती है। रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत ने अमरीका और रूस के साथ संबंधों में संतुलन बनाए रखा है। वहीं चीन ने खुलकर रूस का समर्थन कर अमरीका को भृकुटियां चढ़ाने का मौका दे दिया। चीन को लग गया है कि इस युद्ध के बावजूद दुनिया में भारत की आर्थिक हैसियत लगातार बढ़ रही है। ऐेसे में दक्षिण एशियाई देशों में भारत ही उसका भरोसेमंद साझीदार हो सकता है।
एक बारगी चीन का रुख बदला हुआ लग सकता है, लेकिन चीन की विस्तारवादी नीतियों को ध्यान में रखते हुए भारत उस पर आंख मंूदकर भरोसा नहीं कर सकता। चीन कभी कश्मीर तो कभी अरुणाचल प्रदेश को लेकर मनगढ़ंत दावे करता रहा है। पाकिस्तान के साथ उसकी बढ़ती नजदीकियां और उसे भारत के खिलाफ मोहरा बनाने की प्रवृत्ति भी जगजाहिर है। ऐसे में भारत को चीन के साथ सामान्य रिश्तों की बहाली की दिशा में फूंक-फूंककर कदम बढ़ाने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि भारत और चीन पड़ोसी होने के कारण कई मामलों में एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। दोनों मिलकर अर्थव्यवस्था और व्यापार के मोर्चे पर नई वैश्विक शक्ति के तौर पर उभर सकते हैं, पर अतीत में चीन ने जो कुछ किया उसे नहीं भूलना चाहिए।