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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख-शिक्षा में फर्जीवाड़ा

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शनिवार को छात्राओं के साथ विकसित भारत-2047 में महिलाओं और शिक्षा की भूमिका पर चर्चा की। उनका मत था कि दोनों तत्त्वों के विकास के बिना हम विकसित भारत का सपना नहीं देख सकते।

जयपुरOct 01, 2024 / 01:26 pm

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शनिवार को छात्राओं के साथ विकसित भारत-2047 में महिलाओं और शिक्षा की भूमिका पर चर्चा की। उनका मत था कि दोनों तत्त्वों के विकास के बिना हम विकसित भारत का सपना नहीं देख सकते। ये दो पहिए ही विकास के रथ को चलाएंगे। एक महत्वपूर्ण बात कह गए मान्यवर। शिक्षा उद्देश्यपूर्ण और डिग्री से परे होनी चाहिए। हमारे पास एक ऐसी व्यवस्था है, जहां हर व्यक्ति अपनी प्रतिभा और कौशल के अनुरूप अपने सपने को पूरा कर सकता/सकती है।
महामहिम! धरातल पर आज शिक्षा में एक ही शब्द का साम्राज्य है और वह शब्द है ‘फर्जी’। पिछले दशकों में इसी शब्द ने देश को पीछे धकेलना और देश के विकास को बाधित करना ही अपना लक्ष्य बना रखा है। फर्जी लोग परीक्षा देने लगे, रिश्तेदार छात्रों के स्थान पर परीक्षा देने लगे, पेपर लीक होने लगे, पैसे देकर नम्बर प्राप्त करने लगे और स्वयं विश्वविद्यालय फर्जी डिग्रियां बांटने लगे। नौकरी तो रिश्वत से मिलती है।
मुझे अनुभव है एक कॉलेज का जहां कक्षा में छात्र-छात्राएं आते नहीं थे। प्रश्न उठा 75 प्रतिशत उपस्थिति का। छात्रों का कहना था कि हम फीस उपस्थिति के प्रमाण-पत्र की ही देते हैं। आप तो प्रमाण-पत्र दे दीजिए, पास तो हम स्वयं हो जाएंगे।
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उच्च शिक्षा में प्रवेश भी बहुत कुछ फर्जी अथवा निम्न स्तरीय मिलेगा। यहां एक विश्वविद्यालय में न अध्यापकों की आपूर्ति, न छात्रों की संख्या पर चिन्तन। करोड़ों खर्च और परिणाम-शर्मनाक! आप छात्रों के शोध-ग्रन्थों का अवलोकन कराएंगे, तो स्वयं शर्मिंदा हो जाएंगे। शायद ही कोई स्वीकृत होने लायक निकले। कारण? शिक्षा व्यापार बन चुका है।
शोध-ग्रन्थ एक अनिवार्यता है-उच्च शिक्षा में। सरकारी कॉलेजों की पढ़ाई का स्तर तो आप इस तथ्य से समझ सकते हैं कि निजी कोचिंग संस्थानों का अम्बार लगता जा रहा है। कॉलेजों की पढ़ाई के भरोसे कितने आश्वस्त हैं छात्र और उनके अभिभावक? आज तो अच्छे-महंगे स्कूलों में भारी फीस के बावजूद ‘ट्यूशन’ भारी समस्या बन गई है। उसी में से प्रतिभाएं बाहर आती हैं।
शोध-ग्रन्थ छात्र नहीं लिखते। लिखने वालों की एक फौज हर शहर में तैयार हो गई है। अधिकांशत: फैकल्टी के शिक्षक भी इससे जुड़े रहते हैं। वही छात्रों को प्रेरित करते हैं-शोध-ग्रन्थ लिखवाने को। मोटी रकम भी खर्च होती है। फिर उसे एक निश्चित ढांचे अथवा फार्मेट में टाइप करवाने में आठ-दस हजार रुपए लग जाते हैं। नियमानुसार हर शोध-ग्रन्थ का किसी जर्नल में प्रकाशित होना भी अनिवार्य है। उसके लिए भी विषयवार कई जर्नल बाजार में उपलब्ध हैं जो प्रकाशन के लिए भी आठ-दस हजार रुपए झाड़ लेते हैं। बस, कर दो सबमिट! आप ही सोचिए, महामहिम! देश के ‘उच्च शिक्षा प्राप्त’ कर्णधार बिना पढ़े तैयार हो रहे हैं।
मेरे सामने एक डॉक्टर महिलाकर्मी पर नाराज हो रहा था, जिसने नर्सिंग का कोर्स पास कर रखा था, किन्तु ड्रिप लगाना तक नहीं आता था। 

इसके आगे भी शिक्षा का क्षेत्र है। लोगों के कई समूह फर्जी डिग्रियां दिलाने का कार्य कर रहे हैं। निजी तौर पर विश्वविद्यालयों में कापियों में नम्बर बढ़वाना, उत्तर लिखवाना तो होता ही था। जोधपुर के एक निजी विश्वविद्यालय ने हजारों फर्जी डिग्रियां बांट दी। मालिक जेल की हवा भी खाकर आ गया, किन्तु वे डिग्रीधारी तो आज भी वैध नौकरी कर रहे हैं न। नकली ही सही। हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि देश में कोई विश्वविद्यालय भी बिना यू.जी.सी. की स्वीकृति के चल रहा हो। आज भी अध्यापिकाओं को स्कूल पहुंचने के लिए खेतों में से पैदल जाना पड़ता है, बच्चों को पानी से निकलकर स्कूल जाना पड़ता है। पेड़ पर स्कूल की तख्ती लटकती है।

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शिक्षा में राजनीति उतर आई। कुलपतियों की नियुक्तियां पर्ची से होने लगी अथवा कई राज्यपाल अपने मूल प्रदेश से भी कुलपति ला चुके। शिक्षा में समझौता अनेक स्तरों पर दिखाई देने लगा। ‘ट्रांसफर’ एक बड़ा राजनीतिक व्यवसाय बन गया। इसमें नीति निर्धारक शिक्षक तो होता ही नहीं। जो शिक्षा निदेशक, आयुक्त या सचिव होता है, वही निर्धारण करता है। साल-दो साल में बदलते भी रहते हैं। आज तो शिक्षा में अंग्रेजों का कलैण्डर ही बैठा है। अधिकारियों को वार-त्योहार तिथियों तक का ज्ञान नहीं होता। संस्कृति तो उनकी आज भारतीय नहीं है।
हमारे बाड़मेर क्षेत्र के शिक्षकों के अन्य क्षेत्रों में स्थानान्तरण पर एक बार रोक लगा दी। पति-पत्नी अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत होने से वर्षों साथ रहने से वंचित रहे। यह अधिकारियों की संवेदना का उदाहरण है। इसी क्षेत्र के एक अधिकारी ने पशु मेले पर रोक लगा दी। यहां का मुख्य व्यवसाय पशुपालन है, जो अधिकारी की शिक्षा-अशिक्षा का ही प्रमाण है।
माननीय! शिक्षा नीति अंग्रेजी दां के हाथों में, भ्रष्टाचार राजनीति में सर्वोपरि, शिक्षक भिन्न-भिन्न कारणों से कुर्सी पर! छात्रों को डिग्री चाहिए। जिस शिक्षा की आप चर्चा कर गए, वह तो परिभाषित ही नहीं रही। देने वाला भी फर्जी, लेने वाला भी फर्जी!

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