पिछले दिनों ही उच्च शिक्षा से जुड़े कई प्रमुख समाचार थे। -हाईकोर्ट ने 9 याचिकाओं को किया रद्द- डिग्री के बाद रद्द किए थे एमबीबीएस प्रवेश।
-पेपरलीक एवं डमी अभ्यर्थी के मामले- तीन गिरफ्तार
-कार्यवाहकों के भरोसे आरपीएससी व माध्यमिक शिक्षा बोर्ड
-विवि-इंजीनियरिंग कॉलेज के बुरे हाल
-पेपरलीक एवं डमी अभ्यर्थी के मामले- तीन गिरफ्तार
-कार्यवाहकों के भरोसे आरपीएससी व माध्यमिक शिक्षा बोर्ड
-विवि-इंजीनियरिंग कॉलेज के बुरे हाल
उच्च शिक्षण संस्थाओं की संख्या के मामले में भले ही राजस्थान शीर्ष पर होगा, परन्तु शिक्षा की गुणवत्ता के मामले और भ्रष्टाचार में हम बेशर्मी की सीमा पार कर चुके। विश्वविद्यालयों में पढ़ाने को शिक्षक नहीं है। बीस तो ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां चार हजार से अधिक पद खाली पड़े हैं। विश्वविद्यालय कहने को स्वायत्तशासी हैं, किन्तु वित्तीय स्वीकृतियों के लिए पराधीन ही हैं। मैं कुछ ऐसे मामलों को नजदीक से जानता हूं जहां अधिकारी, कुलपति तो क्या मंत्रियों को भी जेब में रखकर चलते हैं। जगद्गुरु रामानंदाचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय में वित्त नियंत्रक दुर्गेश राजोरिया को पिछले वर्ष परीक्षा नियंत्रक का अतिरिक्त चार्ज दिया गया था। आरोप है कि उन्होंने लगभग 600 छात्रों को बिना फीस जमा कराए परीक्षा में बैठा दिया। पास करके अंकतालिकाएं जारी कर दी। डिग्री-डिप्लोमा की प्रति हाथ में नहीं हो तो क्या अंतर पड़ता है!
लीपापोती का एक अन्य उदाहरण है जोधपुर नेशनल यूनिवर्सिटी का, जो एक निजी विश्वविद्यालय है। वहां संस्थापक कमल मेहता ने 25000 डिग्रियां बांट दी, जेल गया और मामला रफा-दफा हो गया। जो फर्जी डिग्रियां जारी हुईं वे आज भी वैध हैं। जिस प्रकार आरपीएससी वाले धन लेकर आरपीएस बनाने के लिए विख्यात हैं। शिक्षा और व्यवसाय में अंतर कहां रह गया? शोध पत्र कोई लिख दे, पास कोई कर दे, प्रकाशित कोई कर दे और मैं पास हो जाऊं बिना पढ़े। विश्वविद्यालय का परीक्षा नियंत्रक परीक्षा में बैठा दे, अंकतालिका से मेरी नौकरी तो पक्की। कैसे लोग देश के भविष्य को धड़ल्ले से बेच कर खा रहे हैं। कर्णधारों को शिक्षित किया जा रहा है। राजस्थान में तो उच्च शिक्षा की कमान भी महामहिम राज्यपाल और एक उपमुख्यमंत्री के हाथों में है।
माटी का दर्द ही नहीं
भारतीय प्रशासनिक सेवा के चार अधिकारी भी शिक्षा के क्षेत्र में उच्च पदों पर आसीन हैं। इनमें से एक विकास के लिए ख्यातिप्राप्त हैं। दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री के सचिव के रूप में कार्यरत रह चुके हैं और संस्कृत विश्वविद्यालय के पूरे मामले के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। तीसरे, उच्च शिक्षा सचिव हैं। इतने बड़े अफसर भी विश्वविद्यालयों के रिक्त पदों पर नियुक्ति के मामले में लाचार बने बैठे हैं। खाली पद भरने की स्वीकृति वित्त विभाग देता है। पर वित्त का काम देखने वाले अफसर प्राय: संवेदनहीन बन जाते हैं। एक आईएएस अफसर तो विश्वविद्यालयों के प्रस्तावों पर मौन साधकर बैठी हैं। वित्त विभाग के एक बड़े अफसर पर विपक्ष में रहते हुए भाजपा गंभीर आरोेप लगाती थी, आज वह अफसर उपमुख्यमंत्री के लाड़ले बनकर बैठे हैं। मुझे नहीं लगता कि इतने वरिष्ठ लोग शिक्षा जैसे साधारण विषयों और भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे विभाग का उद्धार कर पाएंगे। अभी तो कुलपति पर्ची से ही नियुक्त होते रहे हैं। यह भी पढ़ें
पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – सामूहिक विकास हो लक्ष्य
अकेेले राजस्थान विश्वविद्यालय में ही लगभग 1500 शैक्षणिक व अशैक्षणिक वर्ग के पद रिक्त हैं। संस्कृत विवि में 60, मोहनलाल सुखाड़िया विवि उदयपुर में 200, जयनारायण व्यास विवि जोधपुर में 400, गंगासिंह विवि में 180, वेटरनरी विवि में 550, एमबीएम विवि में 400 पद रिक्त हैं। और कब से हैं? प्रश्न यह है कि कौन चिंतित हैं। कोई अधिकारी सक्षम नहीं है? इसी बीच कितनी तरह की जांचें-रिपोर्ट आईं, दोषियों के नाम उजागर हुए और दब गए। अथवा बरी हो गए? यह भी पढ़ें
पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – कमाऊ पूत
शिक्षा विभाग के व्यावसायिक स्वरूप का श्रेष्ठ उदाहरण है- स्वपोषित (निजी) विश्वविद्यालय। स्किल यूनिवर्सिटी में तो शैक्षणिक/ अशैक्षणिक का एक भी पद नहीं है। संस्थान के पास भूमि भी नहीं है। इसी प्रकार लॉ यूनिवर्सिटी में 40 शैक्षणिक व 40 ही अशैक्षणिक पद स्वीकृत हैं- भर्तियां एक नहीं। बाबा आम्टे दिव्यांग विवि में न जमीन है न ही शिक्षक। शिक्षा संकुल से ही चल रही है। कई विश्वविद्यालयों में 5-7 वर्षों से भर्ती ही नहीं हुई। स्वास्थ्य विभाग में फिजियोथेरेपिस्ट के स्नातकोत्तर कोर्स चल रहे हैं। आरएमए में इनके पदों-नियुक्तियों- ग्रेड आदि की नियमावली तक नहीं बनी। सरकारी स्तर पर विश्वविद्यालय नैक ग्रेड में पीछे चल रहे हैं। यहां तक कि राजस्थान विश्वविद्यालय को भी नैक ग्रेड प्राप्त नहीं है। यह भी पढ़ें