जब संविधान में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई, उस वक्त देश के हालात कुछ अलग थे। समाज का बड़ा हिस्सा वंचित वर्गों के रूप में गिना जाता था। इसलिए यह महसूस किया गया कि उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए। बाद में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी आरक्षण के प्रावधान किए गए। आरक्षण व्यवस्था से एक हद तक इन वर्गों को मुख्य धारा से जुड़ने का मौका भी मिला। लेकिन सच यह भी है कि आरक्षण देने पर जितना चाहा उतना नहीं हुआ। शिक्षा, नौकरी व राजनीति तक में आरक्षण से वंचित वर्गों के एक हिस्से को ही आगे आने का मौका मिल पाया। अनचाहा सब हो गया। गरीब को उठाना था, वह उठा नहीं। उल्टे गरीबी ही बढ़ी है।
मुख्यधारा से जोड़ने के लिए आज भी इन्हें आरक्षण की जरूरत बनी हुई है। पहले आरक्षण के जो आधार तय किए गए थे वे तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर थे। उन आधारों का, लक्ष्यों की पूर्ति का और वर्तमान परिस्थितियों का ध्यान तो रखना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश की भावना भी यही है। आज ही नहीं बल्कि चार साल पहले भी उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में कहा था कि सरकार को समय-समय पर आरक्षण नीति और इसकी प्रक्रिया की समीक्षा करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इसके लाभ उन लोगों तक पहुंच रहे हैं जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है।
सत्ता की राजनीति ने देश को, लोगों से छोटा कर रखा है। वर्ष 1950 में संविधान में कमजोर वर्गों के लिए दस वर्ष तक आरक्षण की जो व्यवस्था की थी, वह आज तक जारी है। देश आजादी का अमृतकाल मना रहा है। क्या आज भी देश उसी स्थिति में है जहां 1950 में था? तब कौन लोग हैं जो निहित स्वार्थों के चलते देश के विकास की गति में बाधक हैं? हमाम में सब नंगे! आज भी जब उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने आरक्षित वर्ग के वंचित समाजों को लाभ पहुंचाने का मार्ग खोला है, जिनको इनके ही समृद्ध/प्रभावी लोगों ने ही वंचित कर रखा था, तब राजनीति में बड़ी हलचल मच गई। ठेकेदारों की दुकानें उठने को हैं। नया खून-नई पीढ़ी आगे आ सकेगी। असली दावेदारों तक आरक्षण का लाभ सुनिश्चित होगा।
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फैसले के कानूनी पक्ष की बात न्यायपालिका-कार्यपालिका-विधायिका करेगी। आम आदमी को जिस कारण से आरक्षण खटक रहा था, अब क्रीमीलेयर को भी उसी कारण से खटकेगा। उनको लाभ अब नहीं मिलेगा। हालांकि वे गली निकालकर कानून का दुरुपयोग करने का प्रयास करेंगे जरूर। ओबीसी आरक्षण लाभ के लिए आय सीमा सालाना आठ लाख रुपए है। इसमें दो संशोधन और हो जाने चाहिए। एक-कृषि की आय को भी आय सीमा में माना जाए। दूसरा-माता-पिता के साथ-साथ आश्रित की आय भी इसमें शामिल की जानी चाहिए। फैसला चूंकि 6:1 के बहुमत से हुआ है, बहुत साहस और चुनौती भरा भी है। अत: पीठ के सभी सदस्य बधाई के पात्र हैं। अब आरक्षण का लाभ वास्तविक हकदारों तक पहुंच पाएगा। जो परिणाम 75 वर्षों में नहीं आए, वे यथाशीघ्र प्राप्त होंगे, ऐसी आशा करनी चाहिए। फैसले की विशेषता यह है कि ऐसी ही व्यवस्था अभी ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) में भी लागू है। समय-समय पर विभिन्न राज्य सरकारें अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार इनमें उप-वर्गीकरण करती भी रही हैं। उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान व्यवस्था को बदले बिना अनुसूचित जाति-जनजाति में भी राज्यों को उप-वर्गीकरण करने का अधिकार दे दिया है। किसी भी वर्ग के मूल कोटे में कोई अन्तर नहीं आएगा। हां, समृद्ध लोग बाहर हो जाएंगे। जिनको विभिन्न कारणों से अछूत/वंचित माना जा रहा है, दलित अथवा अत्यन्त गरीब हैं, अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरियों तक नहीं पहुंच पाए, उनको अब नौकरी एवं अन्य क्षेत्रों में लाभ मिलने लगेगा। संविधान सभा के सदस्यों का सपना अब पूरा होगा।
कथित बुद्धिजीवी सदा प्रलाप करते रहते हैं। उनकी हर कार्य में मीन-मेख निकालने की आदत होती है अथवा वे ऐसा करके अपने अहंकार की तुष्टि करते हैं। इस फैसले से लोकतंत्र के पाए हिलेंगे। सभी जगह क्रीमीलेयर के ठेकेदारों की कुर्सियां हिलेंगी। चाहे कार्यपालिका हो या विधायिका। सही अर्थों में लोकतंत्र का पुनर्गठन होगा। ऐसी छंटनी की कौन कल्पना कर सकता था भला!
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प्रश्नों और आशंकाओं की झड़ी लग जाएगी। शब्दों का नया वाक्युद्ध छिड़ेगा। सब अपनी-अपनी व्याख्या देने का प्रयास करेंगे। इस तथ्य से कौन इनकार करेगा कि आज भी सैंकड़ों जातियां देश भर में आरक्षण के लाभ से पूरी तरह वंचित हैं, जबकि उनके लिए आरक्षण लागू है। संविधान में अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत कोटा तय किया हुआ है। प्रत्येक राज्य में जातियां भिन्न-भिन्न हैं। अत: आज जो व्यवस्था चल रही है, उनके समान परिभाषा वाली जातियां तो हैं, शेष अन्य दलित/पिछड़े जाति समूह नहीं हैं। अब प्रत्येक राज्य अपने स्तर पर इन जातियों का उप-वर्गीकरण कर सकेंगे। झगड़े आंकड़ों को लेकर होंगे। सरकार में वैसे भी कोई आंकड़ा कहां सही होता है। यह रस्साकशी चलती रहेगी। किन्तु जो होना चाहिए था और नहीं हो रहा था, अब होने लग जाएगा। इन दो आरक्षित वर्गों में सामाजिक रूप से अत्यन्त पिछड़े वर्गों तक आरक्षण का लाभ पहुंचेगा। लेकिन यह कब तक पहुंचेगा यह तय नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले की पालना का कोई समयबद्ध कार्यक्रम नहीं दिया। सब राज्यों पर छोड़ा है। मैंने अपने ‘न्याय बना अन्याय’ आलेख में लिखा था कि हर फैसले के साथ उसे लागू करने की अधिकतम समय सीमा भी लिखी जानी चाहिए। आरक्षित वर्ग में होते हुए भी जो अपने ही वर्ग में भी दलित माने जाते थे, पिछड़े माने जाते थे, अब उन्हें भी समानता का दर्जा मिलेगा, सम्मान मिलेगा। एक ही कमी है जो दूर हो सके तो सोने में सुहागा। सर्विस में पात्रता से समझौता नहीं किया जाए। यह देश को पीछे ले जाता है। पिछले 75 साल इस बात के प्रमाण हैं। जस्टिस पंकज मित्थल की यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि वर्ण और जाति व्यवस्था को एक नहीं मान लें। जाति कर्म के अनुसार होती है। वर्ण प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था है। गीता में कहा है-‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।’ (गीता 4/13)। चारों वर्ण, गुण, कर्म विभाग मेरे द्वारा रचे गए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में समानता (सामाजिक) की गारंटी है। बहुत नीचे तक के व्यक्ति तक जाती है। देखना यह है कि राजनेता इस पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं।
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