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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख- न्याय बना अन्याय

न्याय पालिका हमारे लोकतंत्र के तीन पायों में से एक है। इसका स्वरूप आज भी भारतीय नहीं है। । न तो इसकी कार्यप्रणाली भारतीय है और न ही इसका आर्थिक स्वरूप देश के आर्थिक ढांचे से ही मेल खाता है। बल्कि जैसे- जैसे ऊपर के पायदान पर जाते हैं, न्याय महंगा होता जाता है।

जयपुरJul 29, 2024 / 09:14 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
न्याय पालिका हमारे लोकतंत्र के तीन पायों में से एक है। इसका स्वरूप आज भी भारतीय नहीं है। । न तो इसकी कार्यप्रणाली भारतीय है और न ही इसका आर्थिक स्वरूप देश के आर्थिक ढांचे से ही मेल खाता है। बल्कि जैसे- जैसे ऊपर के पायदान पर जाते हैं, न्याय महंगा होता जाता है। एक आम भारतीय को न्याय इस दृष्टि से उपलब्ध ही नहीं है। अमीरों को तुरन्त मिल भी जाता है। गरीब की तो तीन पीढ़ियां खत्म हो जाती हैं। घर बिक जाते हैं। उसके बाद भी अधिकांश को न्याय से तो वंचित ही रहना पड़ता है। तो सवाल यह उठता है कि क्या न्यायपालिका भी स्वतंत्र नहीं है? इसके द्वारा जारी फैसलों को लागू करने का काम कार्यपालिका का है, जो स्वयं भारतीय चिंतनधारा से जुड़ी हुई नहीं है। गरीब का तो उसके लिए अस्तित्व ही नहीं है। उसकी कार्यप्रणाली भी भारतीय नहीं है। जीवनशैली एवं निजी सांस्कृतिक वातावरण भी विदेशी अधिक है।
देश किसका, न्यायपालिका किसकी, किसके लिए? मैंने घर उजड़ते देखे हैं, अपने ही नजदीकियों के। न्याय प्रकिया और महंगी चिकित्सा बहुत सहजता से घरों का सामान बिकवा देती है। आप किसी डॉक्टर पर दावा नहीं कर सकते कि उसने 10-15 वर्ष दवा देकर भी इलाज नहीं किया। दवा चालू है। फैसला लागू नहीं कराने पर ऐसा ही सवाल न्यायपालिका के लिए भी उठता है। वह फैसला किस काम आया। न्याय तो व्यक्ति तक पहुंचा ही नहीं।
पिछले एक दशक को ही लें तो ऐसे बीसियों बड़े फैसले हैं जो देश की सबसे बड़ी अदालत व विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों ने समय- समय पर पारित किए। इन फैसलों पर आज तक या तो अमल ही नहीं हो पाया और या फिर हुआ तो आधा-अधूरा ही। कुछ उदाहरण ऐसे हालात को जानने के लिए काफी हैं।
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राजस्थान हाईकोर्ट ने 12 जनवरी 2017 को मास्टर प्लान की अक्षरशः पालना का जो आदेश दिया उसकी पालना नहीं होने से बार-बार मामले कोर्ट में पहुंच रहे है। इस आदेश को आगे बढ़ाते हुए मार्च 2020 में हाईकोर्ट ने गांवों में चारागाह, जोहड़, तालाब, नदी-बांध व उनके बहाव क्षेत्र, सार्वजनिक रास्तों, श्मशान, कब्रिस्तान आदि की जमीनों पर अतिक्रमण को लेकर जिला स्तरीय कमेटी बनाने को कहा था। कमेटियों की शिथिलता के कारण अतिक्रमणों पर रोक नहीं लग पा रही और लोग हाईकोर्ट पहुंचने को मजबूर है। जयपुर के के रामगढ़ बांध का मामला तो लकीर पीटने जैसा ही है। राजस्थान हाईकोर्ट ने अगस्त 2011 में इस बांध के मामले में स्वप्रेरित प्रसंज्ञान लेकर सभी जलस्रोतों को वर्ष 1955 की स्थिति में लाने का आदेश दिया।
आंखों पर पट्टी
रामगढ़ बांध के बहाव क्षेत्र में किए गए आवंटनों को 13 साल में भी निरस्त नहीं किया गया। हालात जस के तस हैं। इसी तरह वर्ष 2015 में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार और सभी जिला कलेक्टरों को कहा कि किसी भी तालाब के किनारे कोई अतिक्रमण है तो उसे 60 दिन के भीतर हटाया जाए। कुछ नहीं हुआ तो अवमानना याचिका को सुनते हुए हाईकोर्ट ने पालना रिपोर्ट पेश करने का आदेश दिया है। एक अन्य मामले में वर्ष 2017 में हाईकोर्ट ने प्रदेश के निजी स्कूलों के लिए फीस नियंत्रण समिति गठित कर इनकी मनमानी पर लगाम लगाने के निर्देश दिए थे। इसे लेकर भी इंदौर, ग्वा- लियर व जबलपुर बेंच में अवमानना याचिकाएं लम्बित हैं। बात छत्तीसगढ़ की करें तो वहां सड़कों पर मवेशियों के कारण हादसों और मौतों पर 2011 से अब तक तीन जनहित याचिकाएं दायर हो चुकी हैं। कोर्ट बार-बार निर्देश भी दे चुका है। ऐसे ही प्रदेश में खराब सड़कों के कारण दुर्घटनाओं में मौत और सड़कें व पुल अधूरे होने को लेकर हाईकोर्ट ने 2022 में स्वतः संज्ञान लिया। दोनों ही मामलों में कोर्ट के आदेशों की पालना नहीं हो रही है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनदेखी भी कम नहीं हो रही। सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2023 में केंद्र और राज्य सरकारों को थानों और जांच एजेंसियों के कार्यालयों में अनिवार्य रूप से सीसीटीवी कैमरे लगाने के निर्देश देकर एक महीने में इसकी पालन करने को कहा। आज तक सभी थानों में सीसीटीवी कैमरे या तो लग ही नहीं पाए हैं या उनकी रिकॉर्डिंग लोगों को उपलब्ध नहीं कराई जा रही। सुप्रीम कोर्ट ने कोविडकाल के बाद निजी स्कूलों से कहा था कि फीस कमेटी की सिफारिश पर ही फीस वसूल की जाए, लेकिन सरकार ने इस आदेश को लागू नहीं कराया। फीस कमेटियां भी काम करती दिख नहीं रही। सुप्रीम कोर्ट ने दस साल पहले एक याचिका पर बेघरों को आवास मुहैया कराने के उद्देश्य से रैन बसेरे बनाने का आदेश दिया था। आज भी लोग खुले आसमान नीचे रात बिताने को मजबूर है।
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ऐसा कौनसा क्षेत्र है जहां न्यायालयों के आदेशों की अनदेखी न हो रही हो। न चिकित्सा की समय सीमा, न ही न्याय पाने की और फैसलों को लागू करने की कोई सीमा। न लाभार्थी को यह जानकारी कि उसके साथ क्या और क्यों हो रहा है। उसे दोनों की शब्दावली ही समझ नहीं आती। जो फैसले सरकार या सरकारी विभागों के खिलाफ होते हैं, उनका तो कोई अर्थ ही नहीं निकलता। जिस अफसर के आदेश से गलत कार्य हुआ उसके नाम तो फैसला आता ही नहीं। अधिकारी तो फैसला आने तक कई बदल जाते हैं। सेवानिवृत्त भी हो सकते हैं।
विभाग या पदनाम से फैसले क्यों दिए जाएं! आदेश व्यक्ति देता है। कार्य व्यक्ति करता है। पदनाम के साथ फैसले व्यक्तिवाचक भी होने चाहिए। फैसला कौन लागू करेगा-लागू नहीं किया तो अवमानना का दोषी कौन? आज तो कोई नहीं। यदि अधिकारियों, जिम्मेदारों के नाम से कोर्ट आदेश जारी करे तो हर सप्ताह किसी न किसी को सजा मिलने लगे।
दूसरा पहलू यह भी है कि अदालत ने फैसला दे दिया। यदि लागू नहीं किया गया तो अवमानना किसकी? आदेश की, न्यायपालिका की! यदि न्यापालिका को बुरा ही न लगे तो न्याय का अर्थ क्या? जो लाखों रुपए खर्च हुए और पीढ़ियां खप गईं, न्याय प्राप्ति के लिए, उसका अर्थ क्या? क्या इसको संविधान या लोकतंत्र या मानवता का अपमान नहीं मान लेना चाहिए? आज सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के सैकड़ों ऐसे फैसले व फैसले देने वाले भी वक्त की आंधी में खो गए ।
न्याय की देवी खड़ी है, आंखों पर पट्टी बांधे। विकसित देशों में भी चिकित्सा-न्याय ही स्वर्णिम क्षेत्र बन गया है। बीमा की छत्रछाया में। किन्तु न्याय उपलब्ध है। यह नैतिक दायित्व वकील और न्यायपालिका दोनों का होना चाहिए कि प्रार्थी तक न्याय पहुंचाया जाए। न्याय कोई ऐसी वस्तु नहीं जो खरीदकर प्रार्थी को उपलब्ध हो जाए। होना तो यह चाहिए कि हर फैसले के साथ उसको लागू करने की अधिकतम सीमा भी लिखी जाए। कौन जिम्मेदार होगा, अवमानना का भागी भी व्यक्तिशः वही होगा/होगी।
सबसे सम्मानजनक बात तो यह होगी कि सर्वोच्च न्यायालय/प्रत्येक उच्च न्यायालय में विशेष विभाग होना चाहिए जहां आवश्यकता के अनुरूप एक या दो न्यायाधीश हों-स्टाफ हो। उनका कार्य हर फैसले के जारी करने और लागू होने का रिकॉर्ड रखना हो। समयावधि अंकित हो, अधिकारी का नाम दर्ज हो। अवधिपार हो जाने पर अवमानना की कार्य- वाही के लिए फाइल मुख्य न्यायाधीश को प्रेषित कर दी जाए।
अभी तो पुराने-दबे हुए फैसले ढूंढने में भी समय लगेगा। लगा भी देना चाहिए। इसके बिना न्यायपालिका की साख और सार्थकता दोनों ही समाप्त हो जाएगी। आज तो न्याय में होने वाली देरी अकेली ही परेशा- नियां पैदा करने वाली बनी हुई है। आम आदमी से ली जाने वाली न्यूनतम/अधिकतम फीस के लिए भी दिशानिर्देश न्याय का सम्मान ही बढ़ाएंगे।
आज तो कई मामलों में न्यायपालिका भी सवालों के घेरे में आती है। भले ही फैसले लागू करने का दायित्व किसी का भी हो। गांव-गांव में अतिक्रमण, जलस्रोतों पर असुरों का कब्जा, चारों ओर माफिया और सरकार का गठबंधन जैसे हालात इसलिए पैदा हो गए कि न फैसले लागू होते हैं, न ही कोई सजा की बात सुनाई देती है। देश में चारों ओर अन्याय की चर्चा है, भ्रष्टाचार की चर्चा है। आंखों पर पट्टी ही न्याय की परिभाषा बन गई है।

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