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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख-रस ही अन्न का सार

पिछले दिनों आई यह खबर चौंकाने वाली है कि वर्ष 2050 तक दुनिया में पुरुषों में कैंसर के मामले 84 प्रतिशत तक बढ़ सकते हैं।

जयपुरAug 20, 2024 / 04:12 pm

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
पिछले दिनों आई यह खबर चौंकाने वाली है कि वर्ष 2050 तक दुनिया में पुरुषों में कैंसर के मामले 84 प्रतिशत तक बढ़ सकते हैं। अमरीकन कैंसर सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित शोध में यह भी कहा गया है कि कैंसरग्रस्त लोगों में 65 वर्ष से ज्यादा उम्र वालों के बचने की संभावना कम होती है। पुरुषों में कैंसर के मामले बढ़ने का कारण यह बताया गया है कि उनमें महिलाओं की तुलना में शराब व सिगरेट पीने की प्रवृत्ति अधिक होती है। वैज्ञानिकों के साथ-साथ चिकित्सक भी यह कहते आए हैं कि हमारा दूषित खान-पान भी कैंसर का खतरा बढ़ने की बड़ी वजह है। इससे होने वाला कैंसर न महिला को देखता है न पुरुष को। इसलिए चर्चा इस पर ज्यादा होनी चाहिए कि हमारा अन्न कैसा हो? सभी प्रकार के परिवर्तनों का प्रभाव अन्न से संबंध रखता है। विषाक्त होता हमारा अन्न ही सब बीमारियों की जड़ है।
व्यक्ति का जन्म जिस परिवार में होता है, उस परिवार का प्राकृतिक और पारम्परिक अन्न होता है जो शिशु को गर्भस्थ अवस्था से ही प्राप्त होने लग जाता है। इस अन्न पर लम्बी यात्राओं-विभिन्न जलवायु-प्रदेशों का प्रभाव भी पड़ता है और माता की मनोभावना का भी। समय-उम्र-सभ्यता के साथ भी अन्न बदलता जाता है। आज व्यक्ति जिस प्रकार अपना व्यापार चलाने के लिए भी बाहरी सहायता लेता है, उसी प्रकार अन्न का प्रयोग भी बाहरी सहायता से करने लगा है। यहां लक्ष्य केवल शरीर ही होता है। अन्न का मन पर क्या प्रभाव पड़ता है, बुद्धि और आत्मा के साथ क्या सम्बन्ध है, इनकी कोई चर्चा नहीं होती।
शरीर को अन्नमय कोश कहते हैं। दोनों ही पंचमहाभूतों से बने हैं। एक-दूसरे की भाषा समझते हैं। शरीर को क्या चाहिए, शरीर स्वयं अभिव्यक्त करता है। समझने का प्रयास कौन करता है। मन क्या खाना चाहता है, मन अभिव्यक्त करता है। सुनता कौन है? सलाहकार को बुद्धि को समझना होता है। दोनों बुद्धिमान होते हैं। जीवन के वास्तविक ज्ञान से दूर रहते हैं। शरीर को गणित के फार्मूलों पर चलने की मशीन मानते हैं। न रोग की जड़ उनकी पकड़ में आती, न ही उनके लिए दवा का (अन्न रूप में) मन पर पड़ने वाला प्रभाव शोध का विषय है।
आधुनिक डाइट चार्ट, जो समृद्ध बुद्धिमानों के मार्गदर्शक बनते जा रहे हैं, पाचन को ठप कर शक्तिवर्द्धक अन्न को बाहर कर देते हैं। शर्करा के अभाव में भोजन से रस निकल गया। अवशेष तो शरीर वैसे भी विसर्जित कर देता है। शरीर की सभी षड् धातुओं-शुक्र-ओज और मन का निर्माण शिथिल पड़ जाता है। शरीर को ही अग्नि खाती जाती है। स्निग्धता के अभाव में शुक्र-ओज-मन सभी सूखने (रुक्ष) लगते हैं। यह परिभाषा विकास की है या विनाश की? शरीर गया, ऊर्जा (प्राण) गई, मन मरने लगा। इन तीनों (मन-प्राण-काया) को ही तो आत्मा कहते हैं। तीनों के घुटने टेक देने के बाद क्या शेष रह जाएगा।
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नीरस मन में आनन्द नहीं

डाइट चार्ट बनाने वालों को भी ज्ञान नहीं होता कि अन्न के साथ मन बदल जाता है। व्यक्ति की जीवन के प्रति दृष्टि बदल जाती है। वह तो वजन नापता रहता है। उम्र और ऊंचाई से मिलान करता रहता है।
अन्न (सोम) अग्नि में जलकर यज्ञ कहलाता है, नया निर्माण करता है। सोम में तीन भाग हैं-आप:, वायु, सोम। आप: में स्निग्धता है, सोम में शर्करा (चीनी सही अनुवाद नहीं है)। शर्करा शुक्र बनाती है, स्निग्धता ओज। स्निग्धता घी का साम्राज्य है। घी अग्नि का घन रूप है। अग्नि को प्रज्वलित करता है। पाचन ठीक करता है, भूख ठीक रखता है। ओज से मन बनता है। चेहरे पर तेज टपकता है। शर्करा शरीर के धातुओं के अंत में शुक्र (पौरुष) बढ़ाता है। शर्करा ही रस (ब्रह्म) है। शुक्र रूप में नई संतान का बीज बनती है। आधुनिक विज्ञान ने दोनों ही अमृत तत्त्वों को शत्रु घोषित कर दिया।
मन जीवन का आधार है। इसमें ईश्वर रहता है, जीवन के सपने रहते हैं, दु:ख-सुख के, प्रेम-घृणा के अनुभव रहते हैं। मन बनता है अन्न से और अन्न का पोषण करता है चन्द्रमा-शीतल/सौम्य भाव। बुद्धि मन से सूक्ष्म होती है। सूर्य से प्राप्त होती है, उष्ण होती है। मन पर नियंत्रण रखती है। सूर्य पिता है, चन्द्रमा माता है। मनमानी से अनेक बार हानि उठानी पड़ जाती है। बुद्धिमानी से बच निकलते हैं। अत: जीवन में दोनों का संतुलन चाहिए। बुद्धि यदि तेज हो गई तो व्यक्ति का अहंकार हावी हो जाता है। व्यवहार से मिठास दूर हो जाती है। इसका स्थान रुक्षता ले लेती है। अहंकार उसके जीवन को समेट देता है।
मन प्रेम है-इसमें सम्मान है, माधुर्य है, संवेदना है। मन से मानव कहलाता है। मनोयोग ही श्रेष्ठता और सफलता का आधार है। मन का संकल्प ही जीवन को आकार देता है, मूर्ति गढ़ता है। शीतल होने से सुख की अनुभूति देता है। मन के साथ हर कार्य में ईश्वर का योग रहता है। मन को शिक्षित करने का माध्यम मन ही होता है। पुस्तकें बुद्धि में पारंगत करती हैं। शिक्षा का मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हां, किसी शिक्षक विशेष के व्यवहार से व्यक्ति प्रभावित हो सकता है। क्योंकि गुरु की तरह शिक्षक आपके मन में कभी प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। वह तो बुद्धि के क्षेत्र से सम्बन्ध रखता है। आईक्यू (इंटेलीजेंस कोशेंट) पर आधारित क्षेत्र होता है। मन का क्षेत्र ईक्यू (इमोशनल कोशेंट)और गुरु का एसक्यू(स्पीरिच्युअल कोशेंट) होता है।
जीवन का आधार मन हुआ। मन ही कामना का आश्रय है। कामनापूर्ति ही प्राणन की प्रेरणा है। कामनापूर्ति ही जीवन का उल्लास है, आनन्द है, तृप्ति है। यह आनन्द ही शनै:शनै भक्ति का रूप लेता जाता है। फिर तो आनन्द ही आनन्द है। आनन्द रसपूर्ण स्थिति को कहते हैं। नीरस मन में आनन्द नहीं होता। बुद्धि की रुक्षता आनन्द को दग्ध कर देती है। आनन्द-रस-ब्रह्म पर्यायवाची हैं। ‘रसौ वै स:’ (ब्रह्म) कहा है।
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हमारे सामने दोनों स्थितियां रहती हैं। रुक्षता की भी, मधुरता की भी। एक में बुद्धि की प्रवीणता है, एक में मन की पटुता है। एक शिक्षा एवं आईक्यू पर टिकी है, दूसरी समझदारी एवं संवेदना पर। व्यक्ति ही बुद्धिमानी, मनमानी अथवा समझदारी का मार्ग चुनता है। फिर भी निर्णय तो मन के साथ जुड़कर ही हो सकता है। निर्णय मन को भी तो स्वीकार होना चाहिए। तभी कर्म और कर्मफल में आनन्द आएगा। एक असुर का अहंकार किसी को कष्ट देकर, अट्टहास करके आनन्दित होता है। देवता का मन किसी के सुख की पूर्ति करने से तृप्त होता है। गीता का एक श्लोक है-
‘यान्ति देवव्रता देवान्पितृ न्यान्ति पितृव्रता:।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥’ (गीता 9/25)

अर्थात्-देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं। मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं।
कौन किस मार्ग पर चलेगा, इसको पहले प्रकृति तय करती है। व्यक्ति स्वयं की मर्जी से जीना चाहता है तो वह मनमर्जी चलाएगा। जिसे किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता हो वह बुद्धि से निर्णय करता है। कुछ निर्णय वातावरण करवा देता है, कुछ परिस्थितियां बदल-बदलकर करवा देती हैं। व्यक्ति अपने निर्णय के अनुरूप अन्न बदलता भी है। आगे के निर्णय स्वत: ही मन के हाथ में चले जाते हैं।
आप रुक्ष भोजन करने वालों को देखें। कृशकाय होना गर्व की बात हो गई है। मन से संवेदना समाप्त होते जाना या कम होते जाना। चेहरे पर खिलखिलाहट नहीं, रुक्षता-आनन्द का अभाव। जबकि जीवन तो आनन्द का, सामूहिक चेतना एवं रस ब्रह्म का अनुष्ठान है। शर्करा और स्नेहन दो ही तो पूजा की मूल सामग्री है। शेष सब अग्नि है-मल है।
एक ओर अन्न विषाक्त हो रहा है, दूध विषाक्त, फल/सब्जियां विषाक्त। शरीर की रोग निरोधक क्षमता लाचार हो रही है। बचा-खुचा नशे और मादक द्रव्यों की भेंट चढ़ रहा है। जो सुख से जी सकते हैं, उनको विज्ञान के नाम से डराया जा रहा है। जीवन कुछ लोगों के लिए व्यापार है, कुछ के लिए मृत्यु का द्वार बनता जा रहा है। आग में यदि अंगार (रुक्ष अन्न) डाला जाए तो रुक्षता बढ़ेगी। यही रौद्र रूप है। हमारा अन्न शान्त, शिव रूप होना चाहिए।
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