आज शिक्षा-समृद्धि और विकास ने कर्म और काल दोनों की परिभाषाएं बदल दीं। जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही बदल गया। योग छूट गया-भोग जुड़ गया। आत्मा मर गया-शरीर रह गया। जीवन में उद्देश्य रहा नहीं क्योंकि शिक्षा का लक्ष्य नौकरी रह गया है। तब समय का मोल भी कहां रहेगा! शरीर भी अस्थिपंजर तक सिमट गया। बात तकनीक पर ठहरने लगी। मोबाइल ही मित्र, शिक्षक,आचार्य हो गया। जीवन का बड़ा हिस्सा मोबाइल की भेंट चढ़ने लगा। जीवन अतीत और अनागत में उलझने लगा। अध्यात्म का स्थान ग्लैमर ने ले लिया। भीतर की जगह व्यक्ति बाहर दौड़ने लगा।
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शिक्षा-नौकरी के साथ एक नया अध्याय, छुट्टियों का भी जुड़ गया। हमने पूरे गांव में एक दिन -अमावस्या- की छुट्टी देखी है। पूरा बाजार बन्द, सभी कर्मकार शान्त। रविवार की छुट्टी सरकारी नौकरों के लिए थी। आज सब-कुछ विपरीत होने लगा है। सरकार में कामचोरी, पूरे शहर में साप्ताहिक छुट्टी (रविवार) अनिवार्य बन गई। पहले हर बाजार की छुट्टी अलग-अलग दिन होती थी-बड़े शहरों में। जब रविवार को टीवी पर फिल्में आने लगी, अस्सी के दशक में, रविवार प्रधान हो गया। कर्महीनता बढ़ती गई-भोगवृत्ति ने गला पकड़ लिया। दंपति की तरह शनिवार भी सरकारी छुट्टियों में रविवार के साथ जुड़ गया। जीवनशैली का नया दौर यहां से शुरू हुआ। महीने शुरू होने से पहले आगे की लम्बी छुट्टियों की गणना होने लगी। ‘लाँग वीकेण्ड’ एक नया त्योहार बन गया। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि सरकारें भी कर्महीनता के इस स्वरूप को ही प्रोत्साहित करती है। छुट्टियों की लम्बी सूूची किसी अन्य देश में इतनी बड़ी नहीं मिलेगी। शासन भी कर्म से भागता है और कर्मी भी। भ्रष्टाचार के प्रसार में इस नई जीवनशैली की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह पश्चिम के भौतिकवाद को आत्मसात करने का उदाहरण है। छुट्टियां, भ्रष्टाचार और दायित्वमुक्ति का भाव ही सरकारी नौकरियों की ओर आकर्षित करता है।
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हर महीने देश में दो-तीन लाँग वीकेण्ड आने लगे। इतनी लम्बी छुट्टियां! क्या किया जाए। चलो, देशाटन पर। बाहर यात्रा का यह दौर भी इतना चल पड़ा कि कार्य दिवस को ओवरटेक करने लग गया। लोगों का काम में मन कम लगने लगा। कार्यस्थल पर भी छुट्टियों की चर्चा ही बढ़ने लगी है। अगली छुट्टियों की योजना, यात्रा, ठहरने-खाने की व्यवस्था में व्यस्तता बढ़ने लगी। परिवारों का मासिक बजट गड़बड़ाने लगा। बाहर के भोजन का शरीर पर प्रभाव दिखाई देने लगा। छुट्टियों में भी आराम के स्थान पर थकावट बढ़ने लगी। यह भी एक नशा बन गया। नए नशे का नाम हो गया-पर्यटन-टन-टन। किसी को इसका सींग-पूंछ नहीं मालूम। क्या करें-क्यों करें। स्थानीय पर्यटन, अन्तरदेशीय और अन्तरराष्ट्रीय पर्यटन। एक पूरा विभाग खुला हुआ है। टूरिस्ट बंगले-सरकार के लिए फोकट में खाने और पीने के आरामगाह। टूरिस्ट मेले-जिन्होंने संस्कृति का सर्वनाश करने का संकल्प कर लिया है। बड़े-बड़े अंग्रेजीदां, पदासीन अधिकारियों को संस्कृति से क्या लेना-देना? उनके लिए तिलवाड़ा का पशु मेला-पुष्कर का पशु मेला अथवा बेणेश्वर धाम का आदिवासी मेला एक समान है। पुष्कर मेला हम वर्षों से देख रहे हैं। आज अकेले राजस्थान में प्रतिवर्ष कितने मेले पर्यटकों के नाम पर भरने लगे। मेलों के स्वरूप पर कोई दृष्टि डालकर देखें।
मैंने सन् 1981-84 के बीच डूंगरपुर-बांसवाड़ा के सीमांत बेणेश्वर मेले पर लिखा, तब वहां कुछ नहीं था। लोग अस्थि विसर्जन के लिए आते थे। चांदनी रात में टोलियां बनाकर लोग नृत्य करते थे। मावजी के परवाण-कबीर की हैली गायी जाती थीं। उदयपुर तक तो नाम भी नहीं पहुंचा था। आज तो यहां राष्ट्रपति की यात्रा तक हो गई। इसे पर्यटन विभाग ने ले लिया। जो था, सब समाप्त हो गया। अब कैमरे-शराब-जुआ-विभागों की प्रदर्शनियां रह गए। पुष्कर में और मारवाड़ उत्सव में भी तो यही रह गया। सारे मेले एक ही तर्ज पर खड़े हो गए।
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हमने पर्यटकों को क्या दिखाया? दिखाने वालों को स्थानीय सांस्कृतिक वैभव का ज्ञान नहीं, नाच-गान को ही संस्कृति के नाम पर प्रस्तुत करने लगे। वे ही नाच-गान वाले सभी मेलों में, वे ही प्रतियोगिताएं संस्कृति के अवशेष रह गए। सरकार के लिए विरासत दिखाने, शराब के व्यापार, कुछ हद तक पशु-पक्षियों के अभयारण्य ही रह गए। आमेर में डुप्लीकेट टिकटों का धन्धा, हजारों-हजार बीयर बोतलों की हेराफेरी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई। पर्यटकों ने लपकों का, अपराधों का माहौल तेजी से गर्म किया है। यातायात की समस्या, यात्री-बसों की अवैध पार्किंग का काला-धंधा, मादक पदार्थों के प्रति बढ़ता आकर्षण स्थानीय जनजीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। आप भोजन करने होटल में घुसो, खाने के मोल-भाव पर्यटकों को ध्यान में रखकर होते हैं। यात्रा के साधनों पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा है। बस, ट्रेन हो या हवाईजहाज, जगह मिलना दूभर होने लगा है। एक तो साधन कम, चोरियां ज्यादा, ऊपर से कोढ़ में खाज। विश्वभर में प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों की एक जैसी समस्या है। स्थानीय लोग दु:खी हो रहे हैं। जैसे हाल ही में स्पेन के बार्सीलोना शहर में हजारों लोग पर्यटन के खिलाफ सड़कों पर उतर गए। अन्य शहरों में भी बड़े प्रदर्शन हुए है। लोगों का कहना है कि रोजमर्रा की जरूरतों की लागत भी बढ़ गई है। स्थानीय संस्कृति का व्यावसायीकरण तो हो ही रहा है, उसका ह्रास भी लगभग हो चुका है। अश्लीलता की तरफ आकर्षण-बीयर-बाइक-बोटिंग के साथ-साथ पर्यटकों द्वारा फैलाए प्रदूषण से भी त्रस्त हैं। केवल विभाग वाले मस्त हैं।
पर्यटकों को क्या दिखाया जाए। क्या मर्यादाओं का ढांचा बने। (मर्यादा स्वयं संस्कृति का अंग है), क्या भूगोल, खान-पान, जीवनशैली, देवी-देवता-उत्सव-खेती-पशुपालन- वैदिक दर्शन आदि जीवन के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराया जाए। आज जिस प्रकार के भौंडे प्रदर्शन होते हैं, क्या उनको संस्कृति का प्रतिनिधि मान लिया जाए? अफसरों को न कल्चर में-न एग्रीकल्चर में रुचि है। वे जितने दिन एक विभाग में है, उतने दिन ‘चमड़े के सिक्के चलाने’ का अधिकार हाथ में रखते हैं। ये किसी भी अव्यवस्था की कोई जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते ही नहीं।
तब पर्यटन का भविष्य क्या होने वाला है-इस पर भी जनता को ही चिन्तन करना चाहिए। जनजीवन में गिरावट न आए, संस्कृति का अवमूल्यन न हो। नशे का मधुमास अंकुशपूर्ण हो। देश के सम्मान का प्रश्न है। भ्रष्टाचार और क्षुद्र स्वार्थ पर जनता जागरूक हो तो पर्यटन, तीर्थयात्रा बन जाएगा।