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ओपिनियन

पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख-जल से सृष्टि की निरन्तरता

पिछले कुछ दिनों के समाचार विज्ञान के आश्चर्य के रूप में पढ़ने को मिल रहे हैं। ‘पृथ्वी के नीचे (भीतर) जल के अकूत भण्डार मिले।’ ‘नासा ने मंगल ग्रह की सतह के नीचे भी खोजा पानी का भण्डार।

जयपुरAug 20, 2024 / 04:15 pm

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
पिछले कुछ दिनों के समाचार विज्ञान के आश्चर्य के रूप में पढ़ने को मिल रहे हैं। ‘पृथ्वी के नीचे (भीतर) जल के अकूत भण्डार मिले।’ ‘नासा ने मंगल ग्रह की सतह के नीचे भी खोजा पानी का भण्डार। इतना पानी कि एक सागर बन जाए।’ भारतीय ऋषि तो यह बात हजारों साल पहले कह चुके थे। एक सिद्धान्त है-प्रकृति का-‘यथाण्डे तथा पिण्डे।’ जो घटक शरीर के हैं, जो स्वरूप शरीर का है तथा जो नियम शरीर की क्रियाओं पर लागू होते हैं, वे सभी ब्रह्माण्ड पर भी लागू होते हैं। शरीर में यदि तीन चौथाई जल है तो ब्रह्माण्ड के हर स्तर पर भी तीन चौथाई जल है।
प्रकृति में सभी ठोस चीजों-प्राणियों का निर्माण जल से होता है। हमारे शरीर का निर्माण जल से, पृथ्वी का निर्माण जल से, सूर्य का निर्माण जल से होता है। साथ ही प्रत्येक संस्था में तीन चौथाई जल भी रहता है। सृष्टि में 33 देवता (एक चौथाई) तथा 99 असुर प्राण (तीन चौथाई) होते हैं। असुर वारुणी क्षेत्र है। वरुण जलों के राजा हैं।
विष्णु पुराण के अनुसार पृथ्वी की ऊंचाई को सात भागों में बांटा गया है। इन सात लोकों के नाम हैं-अतल, वितल, नितल, गभस्तिमल् (तलातल), महातल, सुतल और पाताल। वहां की भूमियां शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्ण की, कंकरीली, पथरीली और स्वर्णमयी है। उनमें दावन, दैत्य, यक्ष और नाग जैसी सैकड़ों जातियां निवास करती हैं। बड़े-बड़े नाग, मणियों से सुसज्जित होते हैं। दिन में सूर्य किरणें केवल प्रकाश (घाम नहीं) करती हैं। रात को चांदनी फैलती है, शीत नहीं होता। जहां सुन्दर वन, नदियां, सरोवर, कमल-वन तथा नर कोकिलों की गूंज रहती है।
पातालों के नीचे विष्णु का शेष नामक तमोमय विग्रह है, वे स्पष्ट स्वस्तिक चिह्नों से विभूषित, सहस्र सिर वाले हैं। फणों की मणियों से दिशाओं को प्रकाशित किए हुए हैं। जिस समय शेष (नाग) जी जम्हाई लेते हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी चलायमान हो उठती है।
पृथ्वी और जल के नीचे नरक है। श्रीमद्भागवत पुराण के 24वें अध्याय में पृथ्वी के भीतर सातों लोकों की प्रजा, भूगोल एवं प्राणों का विस्तृत वर्णन है। नामों का कुछ अन्तर है। यह प्रकृतिसिद्ध है कि जल के अभाव में प्राणिक सृष्टि जीवित नहीं रह सकती। सातों लोकों में विविध रूप में-दैत्यों, असुरों, नागों आदि की सृष्टि, साम्राज्यों (विज्ञान भाव) का वर्णन है। पृथ्वी के ऊपर सात लोक और भीतर के सात लोक मिलकर 14 भुवन कहलाते हैं। हर स्तर पर तीन चौथाई जल है।
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पृथ्वी का अन्त नहीं है। पृथ्वी पर नदी, पहाड़, अनन्त जातियों के जीव हैं। भूमि के नीचे सर्वत्र जल है। इसे अनन्त कहते हैं। आकाश भी अनन्त, वायु भी अनन्त। सप्तम रसातल तक पहले भूमि, फिर जल, फिर आकाश है। आकाश के नीचे पृथ्वी, फिर जल है। सप्तम पाताल ताल प्रदेश स्वर्ण रंग का है। इसे बलि का नगर कहते हैं। यह असुरों-नागों (प्राण) से पूर्ण देव शत्रुओं से व्याप्त है।
सूर्य विष्णु का सत्यनारायण स्वरूप है। विष्णु सोम हैं।

‘ऊं ध्येय: सदा सवितृ-मण्डल-मध्यवर्ती, नारायण: सरसिजासन सन्निविष्ट:।

केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी, हारी हिरण्यमयवपुर्धृतशंखचक्र:॥’

अर्थात्-सूर्यमण्डल में स्थित, कमल पर विराजमान, स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित, स्वर्णिम देह वाले, चक्रधारी भगवान नारायण का ध्यान करें। जो सवित्र मण्डल के मध्य में विराजित हैं।
मंत्र सिद्ध कर रहा है कि सूर्य के भीतर भी जल-समुद्र है। कमल पर नारायण (नार+आयण)-जल में-जिसका घर हो-रहते हैं। इसमें वैज्ञानिकों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। प्रत्येक पिण्ड जल से बनता है, चाहे वृक्ष हो, शरीर हो अथवा पृथ्वी और सूर्य!
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