तीसरे जनप्रतिनिधि हैं। अधिकांश में तो शासन की समझ ही नहीं होती। कुर्सी की आड़ में अवैध कमाई करने लगते हैं, भले ही विधाता इनकी सात पीढ़ियां उजाड़ दे। देना ये भी भूलने लगते हैं, चुनाव होते ही। अब तो इनमें भी अपराधियों की भीड़ बढ़ने लगी है। इन्हीं की सहायता से नई प्रादेशिक पार्टियां नए राजघरानों की तर्ज पर उभरने लगीं हैं। लोकतंत्र उनके प्रदेशों में उनकी मर्जी से चलता है। बहुभाषी राष्ट्र होने से प्रदेशों में सीधा संवाद या आदान-प्रदान नहीं होता। इन सभी बिखरावों का लाभ हमारे तीनों पाये उठाते रहे हैं। आर्थिक दृष्टि से भले ही आसमान छू सकते हैं, किन्तु आम व्यक्ति को न शुद्ध पानी मिल पाता है, न ही सड़कें गड्ढों से मुक्त हो पाती हैं। स्कूलें आज भी लेने वाले ही तैयार करती हैं। स्वयं अध्यापक को भी वेतन पर भरोसा नहीं है। घर पर जबरदस्ती कर ट्यूशन लेता है। देश की राजनीति में आज भी कितने पुराने रजवाड़े भरे पड़े हैं। क्या चुनाव जीतकर वे अपना अहंकार और बटोरने का स्वभाव छोड़ पाए? मौका मिले तो लूूटने भी लगते हैं। क्या वे लोकतंत्र को कलंकित नहीं करते? देश के विकास में वही भूमिका निभा सकता है जिसके दिल में जनता के लिए दर्द और अपनापन होगा। जो अपने भविष्य को देश का भी भविष्य मानता है। आज देश की 65 प्रतिशत आबादी की आयु 35 वर्ष से कम है। परिवर्तन की गति भी तेज है। तकनीक बदल रही है। मेरी पीढ़ी के अधिकांश नेताओं को नए मोबाइल फोन के सारे फंक्शन समझ में नहीं आते। हो सकता है दसवीं कक्षा की किताबें भी नहीं पढ़ पाएं। ये लोग या तो अपराधियों के भरोसे ही राज कर सकते हैं या फिर अधिकारियों के भरोसे।
आज हमारे लोकतंत्र का स्वरूप ऐसे जनप्रतिनिधियों के कारण व्यापार में बदल गया है। पैसा बहाकर चुनाव लड़ो, जीतकर धन कमाओ। ये चुनाव में विश्वास ही नहीं करते, लड़ते हैं, हार-जीत होती है। एक-दूसरे के शत्रु हो जाते हैं। सदनों में भी देश-प्रदेश की बात न करके व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप में ही उलझे रहते हैं। सरकारें भी राजाओं जैसा व्यवहार करती हैं। आम व्यक्ति से अधिकारी भी बात नहीं करता। बजट का बड़ा अंश सचिवालय में ही ‘काम आ जाता’ है। जनप्रतिनिधि शेयर होल्डर बन गया है। विकास उधार पर आश्रित हो गया।
हमारे लोकतंत्र का एक ही प्रमाण है- बीपीएल की संख्या बढ़ना। अखण्डता के सपने देखने वाला देश आज खण्ड-खण्ड है। हमारी शिक्षा ने भी अज्ञान ही फैलाया है। भारतीयता के स्थान पर जाति-वंश-क्षेत्र में बंट गए। घर के बाहर तो सबको भारतीय होना चाहिए। धर्म के नाम पर अवकाश भी तो लोकतंत्र के माथे पर कलंक ही है। जिनको भविष्य दिखाई नहीं देता वे क्या निर्माण करेंगे। पांच साल आज भी परिवर्तन की गति के हिसाब से लम्बा काल हो गया। आज तो कोरे धर्म-जाति के नाम पर प्रतिनिधि का चुनाव करना लोकतंत्र का भी और देश का भी अपमान ही माना जाएगा। प्रत्याशी को लोकतंत्र के स्वरूप का ज्ञान तो होना ही चाहिए। वरना ये भी तो अधिकारियोें के हाथों कठपुतली बनकर रह जाते हैं। सरकारें आज अपराधियों को पोषित करने लगीं। पुलिस-माफिया का गठजोड़ हो गया। युवा मौन है, उसे सांप सूंघ गया है अथवा जाति-धर्म ने उसे राष्ट्रीय धारा से बाहर कर दिया। वे ही तो देश के कर्णधार हैं।
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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख- बिन पानी सब सून…
पत्रिका आज पुन: युवाओं का आह्वान करता है- ‘आप उतरें तो राजनीति अच्छी हो’। पत्रिका की भूमिका प्रेरणा है। जनप्रहरी आपको बनना है। विकास की लगाम पकड़ें। तकनीक की गति से बदलाव की क्रांति अपेक्षित है। क्रांति के दूत ही अवतार कहलाते हैं। आप ही अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप मार्ग निकाल सकते हैं। सन् 2018 में पत्रिका के चेंजमेकर्स (जनप्रहरी) का परिणाम आप देख चुके, ‘जागो जनमत’ का असर आप देख चुके ‘जनप्रहरी’ में भी कई होनहार आगे आए। अब ‘जनप्रहरी’ का प्रस्ताव आपके समक्ष है। अभी हमें स्वतंत्र होना है- अंग्रेजी मानसिकता है चारों ओर शासन में। आज भी हम उन्हीं की सरकारों पर आश्रित हैं। ये बूढ़े हटते ही नहीं हैं। मरते दम तक गलियां निकालकर युवाओं का हित छीन रहे हैं। न्याय मांगो तो उम्र बीत जाती है, इलाज मांगो तो मरते दम तक दवा बंद नहीं हो पाती। अधिकारी बहरे हैं। वेतन देने वालों से भी दोगला व्यवहार करते हैं। काम जनता के बदले किसी और का करते हैं। कानून जितने कड़े, उतनी बड़ी रिश्वत। तंत्र में लोक का कोई नहीं बचा, सिवा सड़क के गड्ढों के। महिला अत्याचार की घटनाएं ऐसी कि मानो औरतों के केक कट रहे हैं।
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