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ओपिनियन

पत्रिका में प्रकाशित आज का अग्रलेख- बदलें शोध के धरातल

भारत कृषि प्रधान देश है। आज तक तो है, कल का पता नहीं। हम भूगोल-महाभूत और ऋतुओं के आधार पर खेती करते रहे हैं।

जयपुरJul 12, 2024 / 10:41 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
माननीय कृषि मंत्री जी! भारत कृषि प्रधान देश है। आज तक तो है, कल का पता नहीं। हम भूगोल-महाभूत और ऋतुओं के आधार पर खेती करते रहे हैं। आज हमारे नीति निर्माता अधिकारी कमरों में बंद होकर जिस अंग्रेजी में योजना बनाते हैं उसे हमारा कृषक समझता ही नहीं। कृषक की खेती से अधिकारियों का कोई लेना-देना ही नहीं है। वे तो विदेशी तकनीक और आंकड़ों को समझते हैं। जैसे हमारे यहां डॉक्टर की भाषा मरीज नहीं समझता, वकील की भाषा प्रार्थी नहीं समझता, वैसे ही लोकतंत्र के नाम पर जगह-जगह कानूनों का डण्डा दिखाकर आम आदमी को लूटा जाता है। अभी तक तो जनप्रतिनिधि भी उसके लिए कार्य नहीं करते। तब किसानों की आत्महत्याओं की चर्चा कौन तो करेगा और कौन सुनेगा?
हमारा किसान गरीब है किन्तु ईमानदार कर्मयोगी है। उसके सिर पर भारतीय कृषि और पशुपालन से अनभिज्ञ कृषि-शिक्षक कहे जाने वाले अधिकारी खड़े हो गए हैं। जब आय के आगे जीवन छोटा पड़ जाएगा-उपभोक्ता की मृत्यु जहां चिन्ता का विषय ही नहीं है, तब विकास का नंगा नाच कृषि क्षेत्र से फूटेगा-फूट रहा है-फूटता रहेगा। कृषि क्षेत्र में विज्ञान ने जमीन बंजर कर दी, फसल विषैली कर दी, कृषक को भी मौत के मुंह में धकेल दिया और आम आदमी को कीटनाशक-उर्वरक का उपहार ही दिया है। अन्न और दूध दोनों ही विषधर हो गए। माननीय शिवराज सिंह चौहान जी, इस देश को ऐसे विज्ञान और वैज्ञानिकों से मुक्त कराएं, जो न जीवन को समझ पा रहे हैं, न ही अन्न को।
किसान मजदूर नहीं है। अन्न, निर्जीव नहीं है। न औद्योगिक उत्पाद ही है। वैज्ञानिक आधिदैविक संरचना को जानता ही नहीं है। उसको इस दृष्टि से शिक्षित करना पड़ेगा। ईश्वर अन्न के माध्यम से शरीर में प्रवेश करता है, शुक्र में प्रवेश करता है, नए प्राणी का बीज बनकर मां के पेट में पहुंचता है। विज्ञान ने ‘उन्नत बीज’ कहकर ईश्वर के स्वरूप को विकृत कर दिया। कीटनाशकों/उर्वरकों ने धरती मां के पेट को कैंसर उत्पादक बना दिया। वैसे ही, जैसे गर्भनिरोधक गोलियों ने स्त्री के गर्भाशय को रूपान्तरित कर दिया। जब बीज और मातृदेह दोनों विकृत हो जाएंगे तो संतान कैसी होगी? केवल भारत में अन्न को ब्रह्म कहा जाता है। विज्ञान का अपना भ्रम है जो हितकारी नहीं हो सकता।
कृषि वैज्ञानिक नहीं जानता कि किसान धरती की, हल की, इन्द्र देवता की पूजा करता है-बुवाई से पहले। क्यों? वर्षा के माध्यम से ही जीवात्मा धरती पर आता है। वर्षा का देवता इन्द्र है। धरती माता है। मानव दंपति भी प्रजनन यज्ञ से पूर्व देवार्चना करता है ताकि मौत के सौदागरों की आत्मा इस धरती पर अवतरित न हों। दूसरी ओर, ये वैज्ञानिक मानवता को प्रलय की ओर ही धकेल रहे हैं।

वरना किस बात का शोध

किसी भी देश की संस्कृति उसके भूगोल और कृषि पर आधारित होती है। किसी शोधकर्ता के उपकरण कैसे इस तथ्य को समझेंगे! आकृति-प्रकृति-अहंकृति को अलग नहीं कर सकते। शरीर, अन्न से बनता है। प्रकृति, गुणों से अभिव्यक्त होती है। अहंकृति कारण शरीर का धरातल है। अन्न से मन बनता है। मन में ईश्वर रहता है। विज्ञान ईश्वर विहीन लोक है।
राजस्थान को ही लें। यह यूरोप के किसी देश से छोटा नहीं। इसका भूगोल भी देशभर से अलग और भीतर भी अलग। एक क्षेत्र में बाजरा, जाट, राम और दूसरे क्षेत्र में ज्वार, गुर्जर, दूध, कृष्ण तथा तीसरे क्षेत्र में मक्का। पश्चिम में पशुपालन। पशुपालन में देश भर में एकाधिकार-रेगिस्तान के कारण। वैज्ञानिक चाहते हैं हरा-भरा क्षेत्र हो। सरकारें चाहती हैं उद्योग पनपें, सड़कें बनें, पवन तथा सौर ऊर्जा का विकास हो। अर्थात पशुपालन लुप्त हो जाए। पशुपालन राजस्थान में कृषि के बाद संसाधन रूप है। राज्य की कृषि नीति क्या उत्तरप्रदेश अथवा मध्यप्रदेश में लागू हो सकती है? सम्पूर्ण राज्य में भी समान नहीं हो सकती।
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माननीय चौहान सा.! पहले तो भौतिक विज्ञान को कृषि क्षेत्र से बाहर निकालें अथवा अधिदैव का इनको ज्ञान दें। कृषि चेतना से जुड़ा कार्य है। विज्ञान निर्जीव है। कृषि नीतियां, कृषि-परम्परा के आधार पर, स्थानीय (प्रादेशिक) भूगोल-जलवायु के आधार पर बनाई जाएं। विदेशी नीतियां, जिनको कृषक समझ ही नहीं सकता, उन्हें थोपने की आवश्यकता नहीं है। कृषक की जीवनशैली, कृषि की लागत, तकनीक का बोझ, इन सबको समग्र रूप से ध्यान में रखना होगा। आंख मूंदकर कुछ भी नहीं किया जाए। हमारे सामने 75 वर्षों का इतिहास भी है, अनुभव भी है और विज्ञान के परिणाम भी।
विज्ञान के नाम पर, शोध क्षेत्र में हजारों करोड़ रुपए खर्च होते रहते हैं। क्या पाया? सेम की समस्या, फसलों में नए-नए रोग, कीटनाशकों का हल्लाबोल और कैंसर का तोहफा! विज्ञान हमें इन आपदाओं से मुक्ति दिलाने की बात करे, वरना किस बात का शोध? शोध का लाभ परम्परा से जुड़कर ही मिलेगा, टकराव से नहीं। आज तो फसल मरती है या किसान, कोई अन्तर नहीं रह गया है।
आपने भी मुख्यमंत्री काल में देखा है, चौहान सा.! कृषि बीमा के मुआवजों में किस प्रकार की हेराफेरी और धांधली होती है। क्यों किसानों को आत्महत्या करनी पड़ती है! क्यों कृषक बीमा कराने से विमुख होने लगा है। आज तो आपके पास ‘प्रधानमंत्री कृषक बीमा योजना’ है। हालांकि लक्ष्य दूर है। अभी चार करोड़ कृषक ही जुड़ पाए हैं। आपके सामने बड़ी चुनौती है इन कृषकों के मन में विश्वास पैदा करना। इसके लिए कृषि योजनाओं को प्रांतीय स्तर पर लाना होगा। हर प्रांत एक देश है। उसका स्वरूप भिन्न है, प्रकृति-भाषा-परम्परा भिन्न है। योजना कृषक और कृषि के लिए बननी चाहिए। सरकार के लिए नहीं। शोध के धरातल बदलने पड़ेंगे। शिक्षा के पाठ्यक्रम बदलने की भी आवश्यकता है। कृषि अधिकारी कृषक का जीवन समझेगा, नई पीढ़ी की आवश्यकता को ध्यान में रखेगा, तभी कृषक के काम आ पाएगा।
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किसी भी शोध का लक्ष्य होता है जीवन को सुरक्षित रखते हुए आगे बढ़ाना। इसका अर्थ है हमें पहले सुरक्षित-स्वस्थ खेती की ओर मुड़ना है। कृषि अनुसंधान परिषद के पास आज भी 2000 किस्म के नए बीज रखे हैं। पिछले 40-50 वर्षों में जितने भी उन्नत बीज काम आए हैं, उनका लक्ष्य पैदावार बढ़ाना रहा है। स्वास्थ्य की चिन्ता या सुरक्षा की गारंटी वैज्ञानिक नहीं देता। मान्यवर! आज उन्नत खेती करने वाले अधिकांश कृषक अपनी पैदावार को परिवार के ही काम नहीं लेते। क्या वैज्ञानिक इसका उत्तर देंगे। नहीं देंगे। वे तो इधर देखते भी नहीं हैं।
हमें सबसे पहले जानलेवा विज्ञान से छुटकारा पाना चाहिए। अन्न तो देवता है, काल बन गया है। जल-खाद आदि के उपयोग पर भी भूमि एवं भूगोल के अनुरूप नीति बननी चाहिए। जो भूमि हजारों वर्षों में भी खराब नहीं हुई, आज 5-7 सालों में बंजर होने लगी है। कृषक भी कैंसर की चपेट में आ चुका होता है। आर्थिक रूप से लागत के अनुरूप मूल्य नहीं मिलता। आत्महत्या एक विकल्प है, नई पीढ़ी का कृषि से दूर हो जाना दूसरा विकल्प है। खाना सभी को तो चाहिए, पैदा करने वाले अन्नदाता भी बने रहें-यह आवश्यक है। मान्यवर! हरित क्रान्ति की मशाल आज आपके हाथों में है।

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