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मुझे मर्यादा पिताश्री से मिली

जब वर्ष 1975 में वायुसेना से लौटकर राजस्थान पत्रिका से जुड़ा तब श्रद्धेय बाबूसा. ने एक ही निर्देश दिया था- ‘तुम कार्यालय में मेरे बेटे नहीं रहोगे। किसी काम के लिए मेरे पास नहीं आना। सारी व्यवस्था लक्ष्मीनारायण जी (जीएम सा.) ही देखते हैं। तुम भी उन्हीं को रिपोर्ट करोगे’। उनके इस सिद्धांत पर मैं लगभग 17 वर्ष तक चला।

Jan 22, 2024 / 11:01 am

Gulab Kothari

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गुलाब कोठारी
जब वर्ष 1975 में वायुसेना से लौटकर राजस्थान पत्रिका से जुड़ा तब श्रद्धेय बाबूसा. ने एक ही निर्देश दिया था- ‘तुम कार्यालय में मेरे बेटे नहीं रहोगे। किसी काम के लिए मेरे पास नहीं आना। सारी व्यवस्था लक्ष्मीनारायण जी (जीएम सा.) ही देखते हैं। तुम भी उन्हीं को रिपोर्ट करोगे’। उनके इस सिद्धांत पर मैं लगभग 17 वर्ष तक चला। व्यवस्था के इस स्वरूप ने मुझे काम में रमा दिया। डाक की टेबल से लेकर मशीनें ठीक करने तक, विपणन से लेकर सम्पादक तक प्रत्येक पद, धर्म के रूप में जी सका। एक अनुशासित कर्मचारी के रूप में सबके बीच समा गया। कर्म और धर्म का भेद शायद अन्य किसी रूप में इतना गहरा नहीं पाता। धर्म की यही मर्यादा है जिसने राम को देश में पूजनीय बना दिया।

आज व्यक्ति, घर और कर्मक्षेत्र का भेद खो बैठा है। मुझे दफ्तर में ही संपादक रहना चाहिए। घर पर- बाहर मेरे सबके साथ भिन्न-भिन्न संबंध हैं, भिन्न-भिन्न ही व्यवहार के स्तर भी हैं। मैं अपने-आपको बड़ा सम्पादक (डॉक्टर, वकील कोई स्वरूप हो) मान बैठूं और पत्नी-बच्चों, माता-पिता आदि सबके साथ संपादक सा व्यवहार करूं तो घर वालों के लिए संपादक रह गया, पति-पिता-पुत्र सब खो गए। अत: मुझे अपना सामाजिक- व्यावसायिक स्वरूप घर नहीं लाना चाहिए। इसी तरह कार्यस्थल पर कोई संबंध नहीं हो सकता। जो भी नियम कर्मचारियों पर लागू होते हैं, घर के लोगों पर भी लागू होने चाहिए। वे भी कर्मचारी हैं, वेतनभोगी हैं। सजा भी सबको समान मिलनी चाहिए। घर वाला क्यों छूट जाए। यही धर्म है, यही राम है।

बिना प्रेम किए सबके प्रति समानता का यह भाव नहीं आ सकता। पीठासीन व्यक्ति न्याय का रक्षक भी होता है। वहां छोटा-बड़ा नहीं होता। राम जब सिंहासन पर हैं तब राजा हैं। जो सामने है वह प्रजा है। जब सीता आई थीं- वह प्रजारूप थीं- पत्नी नहीं थीं। पत्नी महल में थीं। धर्म का स्वरूप स्थूल नहीं, सूक्ष्म होता है। वहां राम का आदेश था कि ‘यदि सीता का चरित्र शुद्ध है, उसमें किसी तरह का पाप नहीं है तो मुनि की स्वीकृति लेकर आएं और जनसमुदाय के समक्ष प्रमाणित करें। मेरा कलंक दूर करने के लिए शपथ करें।’

‘मैं यह भी जानता हूं कि लव-कुश मेरे ही पुत्र हैं। फिर भी जन समुदाय में शुद्धता प्रमाणित होने पर ही सीता में मेरा प्रेम हो सकता है। ’
इसके बाद सीता ने अपनी अभिव्यक्ति की दिशा ही बदल दी। उन्होंने राम को उत्तर देने के स्थान पर पृथ्वी से प्रार्थना की- ‘राम के अतिरिक्त किसी परपुरुष का चिन्तन तक नहीं किया हो तो पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दें।’(97/14 वा.रामा.)। इसी प्रार्थना के साथ सीता रसातल में समा गईं। पृथ्वी से ही उनका प्राकट्य हुआ था।

सीता मर्यादा की परिभाषा (राम की) जानती थीं। अग्नि परीक्षा से गुजर चुकी थीं। तब भी राम ने यही कहा था कि शत्रु को पराजित करके मैंने तुम्हेें मुक्त कर दिया। मुझ पर जो कलंक लगा था, उसका मैंने मार्जन कर लिया। शत्रुजनित अपमान और शत्रु, दोनों को एक साथ ही नष्ट कर डाला। किन्तु यह सब मैंने तुम्हें पाने के लिए नहीं किया है। सदाचार की रक्षा, फैलेे हुए अपवाद का निवारण तथा वंश पर लगे कलंक का परिमार्जन करने के लिए किया है। आज तुम मुझे अत्यंत अप्रिय जान पड़ती हो। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। अत: तुम जहां जाना चाहो, जा सकती हो- (वा.रामा.सर्ग-115)।

तब सीता ने लक्ष्मण को आज्ञा देकर चिता तैयार करवाई। बोलीं- मेरे स्वामी मेरे गुणों से प्रसन्न नहीं हैं। भरी सभा में मेरा परित्याग कर दिया है। मेरे लिए जो उचित मार्ग है उस पर जाने के लिए मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी।’ और जलती हुई चिता में कूद पड़ीं। सर्ग-वा.रामा. 116

गीता में कृष्ण कहते हैं –
‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत।।

अर्थात- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था ,सूर्य ने पुत्र वैवस्वत -मनु से और मनु ने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा था। राजा राम इक्ष्वाकु के वंशज थे। सूर्यवंशी थे। कृष्ण चन्द्रवंशी थे। सूर्य बुद्धि का अधिष्ठाता है, चन्द्रमा मन का-शीतलता का । राम अग्नि रूप में मर्यादित (सत्य) रहे। कृष्ण सोम रूप ऋत भाव में दिखाई पड़ते थे। प्रेम के पर्याय थे।

दोनों ही मूल में विष्णु के अवतार थे। विष्णु, हृदय में अग्नि प्राणरूप पालक हैं, किन्तु सोम के अधिष्ठाता हैं। अग्रि में कर्म है- कर्म ही धर्म है- मर्यादा है। अग्नि की मर्यादा ही निर्माण करती है। यही स्थितप्रज्ञता कहलाती है। सोम ही अग्नि के जीवन का आधार है, सोम ही मन की चंचलता है- कृष्ण है, छलिया भी है और भीतर स्थितप्रज्ञ भी है-अव्यय है।

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राम ने कर्म को धर्म कहकर ब्रह्म का स्वरूप प्रदान किया। वनवास की सुनकर विचलित नहीं हुए, माता कैकयी से बात करके विचलित नहीं हुए, पिता की दयनीय स्थिति से भी विचलित नहीं हुए। मानो इस दिन के लिए तैयार बैठे थे। स्वयं को कर्ता मानकर नहीं चले। यही अकर्म ब्राह्मी स्थिति है। यही उनके प्रेम का मौन द्वार था। केवट से-शबरी से-सुग्रीव से। कोई शत्रु नहीं था। कोई छोटा नहीं था। कृष्ण की तरह इनके कई नाम नहीं थे। बस ‘राम ’ थे।

मनुष्य का मन वहीं लगता है जहां प्रेम हो। प्रेम भी अपने तुल्य प्राणियों (मनुष्यों) पर विशेष होता है। अत: ईश्वर मनुष्य रूप में प्रकट होकर भक्तों के प्रेम पात्र बनते हैं। भक्ति सौम्य क्रिया है। अग्रि-सोम विश्व में नया निर्माण करते हैं। हर युग की बड़ी घटना का आधार भी महिला रही है। त्रेतायुग में सीता-राम ही अग्नि-सोम थे। द्वापर में भी युद्ध का कारण द्रौपदी थी। सीता पृथ्वी से निकली थीं, द्रौपदी यज्ञकुंड से। राम का जन्म खीर से हुआ था, अन्त जल समाधि से। कृष्ण वासुदेव-देवकी के पुत्र थे, अंत व्याघ्र के तीर से। मूल में सभी दिव्य प्राणात्मक शक्तियां सूक्ष्म ही होती हैं। इनका कार्य भी सूक्ष्म धरातल ही होता है।
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कृष्ण का प्रेम मुखर था। राम का प्रेम मौन था जो क्षमा रूप में प्रकट होता था। प्रेम में आशंकाएं नहीं होतीं। रामेश्वरम में पूजा के लिए रावण को बुलाया, लक्ष्मण की मूच्र्छा तोडऩे के लिए रावण के वैद्य को बुलाया। शत्रु के भाई विभीषण को युद्ध क्षेत्र में शरणागत रूप में स्वीकार कर लिया। समुद्र को सुखाने का लक्ष्य करके भी लक्ष्मण की सलाह पर क्षमा कर दिया।

राम, देश के आदर्श बन गए। पूर्णावतार भले ही कृष्ण कहलाए, किन्तु देश ने साधारण मानव रूप में राम को ही स्वीकार किया। व्यक्ति जिस पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सके, वही आदर्श बन जाता है। सूर्य-चन्द्रमा के प्रतिनिधि रूप अग्नि-सोमात्मक विश्व के दोनों पिता- माता रूप हैं। बीजयुक्त होने से प्रधानता पिता की ही रहती है।

अब तक देश में नौ अवतार हो चुके हैं। राम आठवें थे। अब कल्कि अवतार की प्रतीक्षा है। अवतार के कारणों पर भी कृष्ण ने गीता में स्पष्ट किया –

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
राम के लिए कहा जाता है- ‘रामो विग्रहवान् धर्म’। राम की प्रेमगर्भित मर्यादा, जीने के लिए उत्कृष्ट उदाहरण है।

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