हमारे यहां लोकतंत्र है, चुनी हुई सरकारें भी हैं, तीनों पाये भी कार्यरत हैं, प्रहरी के नाम पर मीडिया भी है। तकलीफ क्या है? यही कि सब मिलकर सरकार की ही भाषा बोलते हैं। जबकि बोलना तो ‘लोक’ हित की भाषा चाहिए। लोक सेवक सारे के सारे नहीं भी तो, अधिकांशलोकहित का साथ नहीं देते, सत्ता का ही साथ देते हैं।
•Oct 31, 2023 / 10:21 am•
Gulab Kothari
गुलाब कोठारी
हमारे यहां लोकतंत्र है, चुनी हुई सरकारें भी हैं, तीनों पाये भी कार्यरत हैं, प्रहरी के नाम पर मीडिया भी है। तकलीफ क्या है? यही कि सब मिलकर सरकार की ही भाषा बोलते हैं। जबकि बोलना तो ‘लोक’ हित की भाषा चाहिए। लोक सेवक सारे के सारे नहीं भी तो, अधिकांशलोकहित का साथ नहीं देते, सत्ता का ही साथ देते हैं।
जनता उनको जो वेतन देती है, उससे उनका पेट नहीं भरता। जनता भूखी सोती रहे, किंतु उनके लिए तो पेट-पालन ही प्राथमिकता है। इन्हें इसके लिए पथभ्रष्ट और अपमानित होना कभी भी बुरा नहीं लगता। उनका ध्यान तो सत्ताधीशों को प्रसन्न रखने में ही लगा रहता है।
सत्ताधीश अज्ञानी-अनभिज्ञ-अपराधी-भ्रष्ट कुछ भी हो सकता है। आज तो विधायिका ही प्रशासन एवं न्यायपालिका पर भारी पड़ रही है। अपने-अपने कारणों से दोनों ने ही अपनी स्वतंत्रता खो दी। यहीं से लोकतंत्र के ह्रास की कहानी शुरू हो जाती है। लोक भी ओझल और प्रहरी भी मौन! लेकिन किस सीमा तक? पिछले विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश के इंदौर-तीन क्षेत्र में लगभग 14 हजार मतदाताओं के नाम गायब थे। निश्चित है कि प्रत्याशी को इसका लाभ मिलना ही था। यह जानकारी चुनाव आयुक्त कार्यालय को भी थी, किन्तु मरघट-सा सन्नाटा। जानकारी मिलने पर मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह सूचना दी, कि उनको इस सूचना की तथ्यात्मक पड़ताल तो करानी ही चाहिए। कुछ समय बाद उनका फोन आया कि मेरी सूचना सही थी और उन्होंने वे सारे नाम पुन: जुड़वा दिए। क्या मतलब?
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