गुलाब कोठारी
आज हर क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका दिखाई पड़ती है। शिक्षा ने महिलाओं के चहुंमुखी विकास और बराबरी का मार्ग प्रशस्त किया है लेकिन कई बार इसके लिए उनको कितनी कीमत चुकानी पड़ती है-सब जानते हैं। पिछले दिनों ही एक खबर सामने आई थी कि पचास फीसदी से अधिक कामकाजी महिलाएं चाहकर भी अपना यौन शोषण नहीं रोक पाती। एक रिपोर्ट के अनुसार देश की नामी कंपनियों में कामकाजी महिलाओं के यौन शोषण के मामले 31 प्रतिशत तक बढ़े हुए पाए गए। हैरत की बात है कि पचास फीसदी महिलाएं तो आज भी लोकलाज के डर से यौन शोषण की शिकायत करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पातीं। चिंताजनक तथ्य यह है कि दुनिया के 141 देशों में यौन शोषण के खिलाफ कानून है फिर भी वैश्विक स्तर पर इस तरह के उत्पीड़न से गुजरने वाली महिलाओं की संख्या 38 फीसदी है। इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है?
बड़े पद पर न आदमी बड़ा हो जाता है, न ही स्त्री। आज तो स्कूल-कॉलेजों से ही शोषण शुरू हो जाता है। शरीर विकास की सीढ़ी बनता जा रहा है। कार्यस्थलों पर ऐसी शिकायतें आम हैं। यौनाचार, शोषण का प्रमाण है और रिश्वत भी है, जहां शरीर मुद्रा का कार्य करता है जिसमें मानव का पाशविक स्वरूप सामने आता है। इसका प्रधान सूत्र है-‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं।’ आगे का सारा खेल-केवल ब्लैकमेल। आज तो वीडियो वायरल करने में भी कोई परहेज करता नहीं दिखता।
यौन शोषण सदा कमजोर का होता है। बड़े अधिकारी-नेता इसमें भागीदार होते हैं। मामला सामने आने पर उनको बचाने की कोशिश जांच समितियां तक करती हैं। ताकि किसी भी तरह बड़े पद पर बैठे लोग इज्जत बचा सकें। ऐसी जांच समितियां ही न्याय को अन्याय में बदलने का कार्य करती हैं। हमने हाईकोर्ट की समितियों को भी घटनाओं पर पर्दा डालने वाली बड़ी-बड़ी रिपार्टें पेश करते देखा है। समस्या जस की तस है। आज हमने लोकतंत्र अपना लिया। लेकिन क्या इसके कारण महिलाएं सुरक्षित हो पाईं? लोकतंत्र के तीनों पाये यौन शोषण की भेंट चढ़ गए। यौन शोषण का मामला जब न्यायपालिका से जुड़ता है तो प्रतिक्रिया भिन्न होती है। विधायिका में तो सत्ता मद बोलता है। ऐसे ही मामलों में केन्द्र में मंत्री रहे पत्रकार एम.जे.अकबर, राजस्थान में मंत्री रहे महिपाल मदेरणा व पूर्व विधायक मलखान विश्नोई के जेल जाने के उदाहरण सामने हैं। राजस्थान के एक पूर्व मंत्री रामलाल जाट को तो पद से इस्तीफा तक देना पड़ा था। थानों में बलात्कार के मामले तो गिनती से बाहर जाने लगे हैं।
पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका में बड़े जज यौन शोषण के आरोपों में घिरते दिखे हैं। समाज में इन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता रहा है। शिक्षा और अध्यात्म
यह दूसरी बात है कि इनमें से ज्यादातर की चर्या में भी प्रशासनिक अधिकारियों की तरह विदेशी खान-पान, वेश-भूषा, पार्टी-समारोह, विदेशी ड्रिंक छाए रहते हैं। यह वातावरण ही इनके चिंतन को भारतीय माटी से अलग कर देता है। योग का स्थान भोग संस्कृति में बदल जाता है। राजस्थान उच्च न्यायालय के एक जज को रिश्वत में अस्मत मांगने के आरोप लगने पर इस्तीफा देना पड़ा था। आज तो हर कहीं ऐसा दुस्साहस होता दिखता है। बिना सबूत कौन लड़ सकता है भला!
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के एक जज पर अंगुली उठी। राज्यसभा के सभापति ने जांच समिति गठित की, जज निर्दोष पाए गए। भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पर भी अंगुली उठी, समिति बनी, निर्दोष पाए गए। एक अमरीकी सांसद ने सदन में दो सांसदों पर बलात्कार का आरोप लगाया। पुलिस प्रशासन पर निष्क्रियता बरतने का आरोप भी लगाया। यूरोप की एक सांसद के साथ भी ऐसा ही हुआ। सभ्य समाज में ऐसा यौनाचार दुर्भाग्यपूर्ण है। इस पर सरकारों का मौन? क्या हम परदेशी-शरणार्थी हो गए? महिलाएं कितनी अनाथ, कैसा क्रन्दन और यह कैसा लोकतंत्र? जब महिला जज भी इच्छा मृत्यु मांग बैठे। जज ही उसका यौन शोषण करे। धिक्कार शासन को, प्रशासन को, ऐसे न्यायाधीशों को!!!
उत्तरप्रदेश आज महिला सुरक्षा में सिरमौर कहा जाता है। वहां बांदा में तैनात महिला सिविज जज ने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर इच्छा मृत्यु की मांग की है। आरोप लगाया है कि बाराबंकी में उसकी तैनाती के दौरान जिला जज द्वारा शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना दी गई। जिला जज द्वारा रात में मिलने का दबाव डाला गया। महिला जज ने पत्र में लिखा है- ‘मैं भारत में काम करने वाली महिलाओं से कहना चाहती हूं कि यौन उत्पीड़न के साथ जीना सीखें। यही हमारे जीवन का सत्य है। यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम (पॉश एक्ट) हमसे बोला गया एक बड़ा झूठ है। कोई हमारी नहीं सुनता। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर आप शिकायत करेंगे तो आपको प्रताड़ित किया जाएगा। अगर कोई महिला सोचती है कि आप सिस्टम के खिलाफ लड़ेंगे, तो मैं आपको बता दूं कि मैं ऐसा नहीं कर सकती। मैं जज हूं, अपने लिए निष्पक्ष जांच तक नहीं करा सकी। चलो न्याय क्लोज करें। मैं सभी महिलाओं को सलाह देती हूं कि वे खिलौना या निर्जीव वस्तु बनना सीखें।’
इसके बाद अब इस धर्मधरा पर सुनने को क्या रह गया? विदेशी महिला जीवन में तीन-चार बार भी शादियां कर लेती हैं। वहां शादी का अर्थ शरीर का सुख ही है। भारत में विवाह, आत्मा से आत्मा का होता है। सात जन्मों का होता है। आज की शिक्षा में आत्मा नहीं है। व्यक्ति शरीर नहीं होता-शरीर तो वस्त्र मात्र है। यह शिक्षा, अर्थ और शरीर को ही प्रधानता देती है। उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति किसी भी पद पर हो, उसके सुख की परिभाषा भोग के बाहर नहीं जाती। अध्यात्म संस्था से वह पूरी तरह कट चुका होता है। इस तंत्र में जहां भारतीय संस्कार प्राप्त नारी प्रवेश करती है उसका यही हाल होता है, हो रहा है। भौतिकवाद में नारी को भोग की वस्तुओं में शामिल कर दिया है। उच्च शिक्षा प्राप्त-कोर्ट मैरिज करने वालों के सम्बन्ध भी स्थायी नहीं हो पाते। वे भी विदेशी ढांचे को स्वीकार कर लेते हैं।
आज सिनेमा ने भी ‘लज्जा’ शब्द की सारी मर्यादा लांघ दी है। यौन अपराधों से निपटने को लेकर कई कानून व संस्थाएं बन गईं। बाल अपराध और महिलाओं से जुड़े अपराधों पर कई स्पेशल कोर्ट बने हैं। पोर्नोग्राफी का कानूनन निषेध है। सिनेमा में तो दिखा ही नहीं सकते। किन्तु यू-टॺूब व अन्य प्लेटफार्म पर ब्लू फिल्में बेरोकटोक चौबीसों घंटे-सातों दिन उपलब्ध हैं। शिक्षण संस्थाओें व कार्यस्थलों में व्हाट्स एप जैसे प्लेटफार्म ही मुख्य मनोरंजन के साधन हो गए। किसी का भी वीडियो, किसी भी अवस्था में वायरल हो जाता है। बलात्कार तक के वीडियो वायरल हो रहे हैं। पूरा तंत्र आसुरी रंग में डूबा है। इनको रोकने के लिए न कोई कानून है, न ही कोई प्रयास।
आज तोे विधायिका (सांसद और विधायक) में भी 40 प्रतिशत आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। इनके मुकदमों की सुनवाई समय पर होती रहती तो शायद अधिकांश चुनाव ही नहीं लड़ पाते। इन पर ही यदि यौनाचार का आरोप लगे तो पीड़ित महिला पर क्या गुजरेगी? कितनी महिलाएं इच्छा मृत्यु के लिए प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिख पाएंगी? जब महिला जज की ही सुनवाई नहीं तो दूसरी कामकाजी महिलाओं की कौन सुनेगा? महिला जज से जुड़े इस मामले में तो प्रधान न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़ ने कार्रवाई शुरू कर दी है। बेहतर होगा यदि इस मामले से जुड़े पुलिस-प्रशासन अधिकारी, मंत्री/मुख्यमंत्री (यदि मामला वहां पहुंचा हो) आदि सभी को जिम्मेदार ठहराया जाए। न्यायपालिका की छवि एक धर्मसंस्था की हो, ताकि अन्य क्षेत्रों के अपराधी सबक लें। साथ ही पीड़ित महिला को सुरक्षा देते हुए शिकायत करने को भी प्रेरित करें। ‘मी-टू’ के मामले बनावटी उदाहरण न लगें।