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दान या युद्ध?

पांच राज्यों में विधानसभा के आम चुनाव का दृश्य आज दान का नहीं, युद्ध का हो गया है। देने वाले दाता की कोई चर्चा ही नहीं करता, मांगने वाले एक-दूसरे से लड़कर हारने-जीतने की बातें कर रहे हैं।

Nov 11, 2023 / 11:30 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
पांच राज्यों में विधानसभा के आम चुनाव का दृश्य आज दान का नहीं, युद्ध का हो गया है। देने वाले दाता की कोई चर्चा ही नहीं करता, मांगने वाले एक-दूसरे से लड़कर हारने-जीतने की बातें कर रहे हैं। दान का, मत के दान का वातावरण कुरुक्षेत्र सा हो गया है। दानदाता को रिझाने का प्रयास कोई नहीं करता, उसके मत की बोली लगा रहे हैं। उसे प्रलोभन देने की होड़ लगी है। वह भी उसी के ढंग से। यूं निर्वाचन आयोग सत्ता पक्ष को सरकारी मशीनरी के उपयोग तक की अनुमति नहीं देता और यहां चुनाव के लिए संपूर्ण राजस्व खर्च करने की खुली छूट देता है। कैसा न्याय है यह। सभी की आंखों पर काली पट्टी है।

दान एक पवित्र अनुष्ठान है, उम्मीदवार घर-घर जाकर स्वयं के लिए मांगता है। वास्तव में तो उसे दाता के सामने अपनी पात्रता सिद्ध करनी चाहिए। मतदाता उसे अपने मत का दान क्यों करे! वह क्या लौटाएगा समाज को- बदले में। क्योंकि मतदान देश और नई पीढ़ी के भविष्य के लिए होता है, वर्तमान के लिए नहीं। पांच साल में क्या परिवर्तन हो जाएंगे, तकनीक कहां पहुंचेगी, युवा वर्ग के आगे क्या-क्या स्पर्धाएं-चुनौतियां होंगी। क्या नई सरकारें इनको समझकर इनका समाधान करने में सक्षम होंगी? क्या यूं ही बेरोजगारी-पर्चे लीक और भ्रष्टाचार करने वाले अपराधियों-बाहुबलियों को ही जिताना है? हर हाल में नाकारा, नासमझ और अनैतिक आचरण वाला उम्मीदवार न जीतने पाए। चाहे बात किसी जाति-धर्म या क्षेत्र की हो। न अपराधी का कोई धर्म होता है, न ही विकास का। मतदान व्यापार भी नहीं हो सकता। व्यापार भविष्य कैसे हो सकता है! क्या भविष्य बेचा जा सकता है? आज तो टिकट बिक रहे हैं, उम्मीदवार बिक रहे हैं, मतदाता को भी खरीदने का प्रयास हो रहा है। दल-बदल भी व्यापार का ही रूप है। आज भी कितने प्रत्याशी दल बदलकर चुनाव लड़ रहे हैं। ये दलों के प्रति कैसी निष्ठा का प्रमाण है! बल्कि मतदाता का अपमान ही है। चुनाव तो देश और प्रदेश के भावी मुद्दों को लेकर होता रहा है। आज तो चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है। कोई दल कार्ययोजना की बात नहीं कर रहा है।

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मतदाता का घोर अपमान
दोनों प्रमुख दल राजस्व को बांटने की ही चर्चा कर रहे हैं। ‘मैं यह दे रहा हूं’ और ‘जीत गया तो’ मैं यह दे दूंगा’। आपका धन आपको ही बांट दूंगा, कुछ खा लूंगा। कोई दल विकास और राज्य को कर्ज-मुक्त करने की बात नहीं करता। इक्कीसवीं सदी के युवा को विश्व-पटल पर प्रस्तुत करने की बात नहीं करता। शायद यह विषय उसकी समझ के ही बाहर का है। तब उसे मत का दान क्यों किया जाए! पांच साल फिर पर्चा लीक, भर्ती घोटाला और भ्रष्टाचार ही भोगना पड़ेगा। अब तक 75 साल आंखें मूंदकर भरोसे पर मतदान करते रहे। गरीब और गरीब होता गया। पर आज तो युवा शिक्षित भी है और बहुमत में भी है। हर क्षेत्र में ‘प्राइस टैग’ (क्रय मूल्य) लगा दिया गया तो लोकतंत्र शुद्ध व्यापार बनकर रह जाएगा। कार्यपालिका और न्यायपालिका जो 75 सालों से करती आई हैं, आगे भी करती रहेंगी। लोकतंत्र सीढ़ी-दर-सीढ़ी लुढ़कता ही जाएगा। अपराधी ही जीत कर सदनों की शोभा बढ़ाएंगे। आज भी 44 प्रतिशत विधायक और 40 प्रतिशत सांसद दागी हैं। अर्थात लोकतंत्र की विरासत या पवित्रता में कोई विश्वास नहीं रखते। सदन ‘रावण की लंका’ होते जा रहे हैं।
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इस बार के चुनाव कुछ अलग हैं। बिना मुद्दे और बिना क्षत्रपों के। दोनों ही दल दिल्ली आश्रित रहे। बीच की कड़ी खो गई। यह लोकतंत्र का नया स्वरूप सामने आया है। प्रदेशों के मुख्यमंत्री भी नई भूमिका में हैं। भाजपा मोदी जी के भरोसे -कांग्रेस के अलग-अलग कारण। प्रधानमंत्री ही मुख्य भूमिका में रह गए। प्रियंका-राहुल ही कांग्रेस चला रहे हैं। इनके बाद कौन? कहीं कोई नहीं। बागी बढ़ते जा रहे हैं। अब डर किसका! पार्टी का कद घटता जा रहा है। व्यक्ति पार्टी से लड़ने को तैयार है। हर राज्य में पुलिस, सत्ता पक्ष के साथ है। आचार-संहिता का उल्लंघन निर्वाचन विभाग तक पहुंचता ही नहीं। शिकायतें भी नकार दी जाती हैं। प्रदेश के न्यायालयों में गए तो चुनाव तक फैसले की संभावना ही दिखाई नहीं देती। यही बात अपराधी का हौसला बढ़ाती है।

लोकतंत्र की एक और विडंबना हो गई है कि विपक्ष उपलब्ध ही नहीं रहता। चार साल मतदाता से संपर्क ही नहीं करता। कई प्रभावी नेता तो सदन की बैठकों तक में नहीं जाते। क्या यह लोकतंत्र और मतदाता का घोर अपमान नहीं है? इन लोगों की सदस्यता रद्द करने का कोई प्रावधान भी नहीं है। अर्थात मत खरीद लो या छीन लो। पुरुषार्थ का स्थान मुफ्तखोेरी और बंटरबांट लेती जा रही है। इस राशि को भी अनेक प्रकार के कर और शर्तें लगाकर लूट लेते हैं। कई योजनाएं बंद करके नई शुरू करते रहते हैं। मिलता किसी को कुछ नहीं।

अभी भी समय है। युवा के हाथ में लोकतंत्र की पुन: प्रतिष्ठा है। उसी का भविष्य दांव पर लगा है। न जाति का- न धर्म का। उसी का सामूहिक आकलन हो। उसी आधार पर मतदान किया जाए। जनप्रतिनिधि, अपराधी-अशिक्षित तो कभी नहीं।

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