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ओपिनियन

हम कहां जा रहे हैं?

यह चुनाव बाकी चुनावों से यूं तो कई अर्थों में अलग है किन्तु एक अर्थ जो सर्वाधिक अनर्थ वाला है, वह है उपयुक्त- विवेकवान -भविष्यदृष्टा उम्मीदवारों का अभाव। हमने 75 सालों में कुछ खोया-पाया भी! विश्व गुरु का सपना देखने वाला गणतंत्र आज भी जाति के आधार पर चुनाव कराने की सोच रहा है।

Nov 20, 2023 / 10:53 am

Gulab Kothari

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यह चुनाव बाकी चुनावों से यूं तो कई अर्थों में अलग है किन्तु एक अर्थ जो सर्वाधिक अनर्थ वाला है, वह है उपयुक्त- विवेकवान -भविष्यदृष्टा उम्मीदवारों का अभाव। हमने 75 सालों में कुछ खोया-पाया भी! विश्व गुरु का सपना देखने वाला गणतंत्र आज भी जाति के आधार पर चुनाव कराने की सोच रहा है। इसमें भी कोई बुराई नहीं यदि योग्यता का एक निश्चित आधार तय किया जा सके। राज्य विधानसभा में बैठने वाला उम्मीदवार राज्य की न्यूनतम जानकारी रखने वाला तो होना ही चाहिए। इसके बिना न वह जाति का भला कर सकेगा न ही राज्य का। हमने दर्जनों उदाहरण देख लिए हैं। मध्य-पूर्व का कभी ‘पेरिस’ रहा लेबनान इसी जातीय समीकरण के आधार पर आज आतंकी संगठन ‘हिजबुल्लाह’ के हाथों में खेल रहा है। उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व ही संकट में आ गया। लोकतंत्र एक अभिशाप बन गया। बनना ही था।

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भारतीय लोकतंत्र तो आज इसी भंवरजाल में फंसा है। जातिवाद के हमारे यहां कई नाम भी हैं। इतने टुकड़े किसी अन्य राष्ट्र के समाज में शायद ही हो। हर समाज को यही ख़ुशी है कि बस मेरे समाज के एक व्यक्ति को टिकट मिल गया। उसकी भूमिका पर कोई चर्चा नहीं, प्रश्न नहीं। इसी ऊहापोह में लोकतंत्र खो गया। नए नेताओं का निर्माण चिंता का विषय ही नहीं रहा। अभी तक भी अनपढ़ उम्मीदवार चुनकर आ रहे हैं। जिन वर्गों से ऐसे उम्मीदवार आते हैं उनके युवा अपने भविष्य को लेकर कोई शिकायत भी नहीं करते। हर वर्ग में नए शासक-समूह बन गए। फिर छोटे-छोटे रजवाड़े बन गए। पुन: लूट-अत्याचार-भ्रष्टाचार की कथाएं दोहराई जाने लगी हैं। लोकतंत्र का फायदा पुन: आम लोगों तक पहुंचना ठहर गया है। गरीब और गरीब हो रहा है।

सत्ता का केन्द्रीकरण होने लगा है। जनप्रतिनिधियों में अपराधी वैसे ही बढ़ रहे हैं जैसे कंस या रावण के राज में। आंकड़े बताते हैं कि लोकसभा में 40 प्रतिशत से अधिक सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। कमोबेश यही हाल विधानसभाओं का भी है। सच्चाई यह है कि भले ही नेता हजारों करोड़ कमा रहे हैं, अधिकारी- पुलिस भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं पर आम आदमी को तो आज भी न तो पीने का स्वच्छ पानी, न चिकित्सा सुविधा और न ही सुरक्षा और सम्मान उपलब्ध है। इसका एक ही कारण है, सुदृढ़ जनप्रतिनिधि का अभाव। किसी भी दल का शीर्ष नेतृत्व इसी प्रश्न पर उत्तरदायी नहीं है।

जिस कांग्रेस ने सौ साल पूरे कर लिए, वह आज भी एक परिवार पर आश्रित है। उत्तरप्रदेश चुनाव में प्रियंका गांधी अकेली प्रचार कर रही थीं। अभी विधानसभा चुनावों में एक और मल्लिकार्जुन खरगे जी (कांग्रेस अध्यक्ष) जुड़ गए।

हर प्रदेश में बीस-पच्चीस राज्य स्तर के नेता क्यों नहीं? धन के केन्द्रीकरण के कारण? क्या यही हाल भाजपा का भी नहीं है? मायावती, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, लालू यादव, स्टालिन, जगन …। आप किधर भी दृष्टि डालकर देखिए, ये सब रजवाड़े ही नजर आएंगे। कहीं सत्ता का विकेन्द्रीकरण नहीं है। कहीं लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र के नाम पर सर्वत्र ही स्वयं का व्यापार हो रहा है। राजस्व आ रहा है, तंत्र खा रहा है। विकास के नाम पर सड़कें- पुल आदि मोटे कमीशनखोरी के काम हो रहे हैं। भले ही अनावश्यक हों। गरीब नदारद है। यदि है तो जाति आधार पर स्पष्ट भेदभाव दिखाई देता है। विरोधी दलों के क्षेत्र विकास से अछूते रह जाते हैं।

मूल में चुनाव युवा पीढ़ी के भविष्य को ध्यान में रखकर होता है। नई सरकार उनके विकास में योगदान करेगी। युवा पीढ़ी देश का, हमारा (परिवार का) नेतृत्व करती है- प्रतिनिधि होती है। न हमको उसकी चिंता है, न सरकारों को और न ही स्वयं उनको। छात्रसंघ में चुनावों का जोर दिखाई देता है किंतु चुनाव के प्रति वैसी गंभीरता नहीं है। प्रचार का पूरा दौर क्रिकेट देखने में गुजार दिया। चुनाव भी मनोरंजन बनकर रह जाएगा। विकास की चर्चा वहां भी कम है। जाति का नशा ही हावी है। नया नेतृत्व कैसे पैदा होगा, जो प्रदेश या देश की सोचेगा!

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इस दशा में लोकतंत्र तो पंगु हो रहा है। बेरोजगारी, पेपरलीक, भर्ती बंद, भ्रष्टाचार, अपराधी ही भविष्य है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। भ्रष्टाचार का धन ही शराब और मादक पदार्थ, हथियारों और मानव तस्करी जैसे अवैध व्यापारों को बढ़ाते हैं। फिर काम कौन करेगा? तुम मरो, हम कमाएंगे। असली प्रसाद तो यही मिल रहा है- लोकतंत्र का। बलात्कार एवं हत्याएं भी प्रभावशाली वर्ग का एकाधिकार क्षेत्र माना गया है। शास्त्रों में इस वर्ग को भोगी और रोगी कहा गया है। अहंकार ही इनका मूल है।

जब हमें स्वच्छ छवि वाला जनप्रतिनिधि नहीं मिलता, समझदार नहीं होता तब शासन अधिकारियों के हाथों में चला जाता है। वहां लोक होता ही नहीं, केवल तंत्र होता है। जातिवाद या वंशवाद जैसे मंत्र ही लोकतंत्र की मृत्यु का साधन होते हैं। संजीवनी युवा के ही हाथों में है। चाहे तो विवेक से पात्रता के आधार पर चुनाव कर ले अन्यथा विकास की आत्महत्या तो शाश्वतता है ही।

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