नए युग का सूत्रपात
अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित, आपराधिक पृष्ठभूमि और जातिगत मानसिकता ने हमारे लोकतंत्र को केवल विषपान ही कराया है। देश को खण्ड-खण्ड किया है। जनप्रतिनिधियों ने ही जनमत से शक्ति लेकर जनता का शोषण किया है। भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबकर आज भी ये अट्टहास की मुद्रा में हैं। लोक की आड़ में सामंती वातावरण को प्रतिष्ठित रखा। इसीलिए इन 75 वर्षों में गरीब और गरीब होता चला गया। यही मूल विकास हुआ। सत्ता पक्ष, न जनता से जुड़ा, न राष्ट्रवाद से और न ही देश की माटी से। शिक्षा प्रणाली ने अंग्रेज बनाने का काम जारी रखा। आज तक हम भारतीय पैदा नहीं कर पाए। समाज में संवेदनशील मानवता भी प्रतिष्ठित नहीं कर पाए। यही वह कारण है कि जनप्रतिनिधि आज स्वयं को पार्टी और राष्ट्र से बड़ा मानता है। पांच वर्ष तक स्वयं के लिए ही कार्य करता है। एक व्यापारी की तरह अपनी लाभ-हानि पर ही केन्द्रित होने लगा है। जनता का सारा धन माफिया के माध्यम से मादक पदार्थों, हथियारों, शराब आदि के जरिए हमारी ही पीढ़ियों को पंगु बनाने में लगा रहा है। जबकि लगाना तो इनके विकास के लिए था। क्षुद्र दृष्टि ने अक्ल पर पत्थर पटकने शुरू कर दिए।
जिस प्रकार इन राज्यों में किसी मुख्यमंत्री का नाम लीक नहीं हुआ, उसी प्रकार प्रतियोगी परीक्षाओं में कोई पर्चा भी लीक नहीं होना चाहिए। न तो सरकारी धन दलालों के हाथों में पड़े और न ही माफिया नीति-निर्धारण में ही दखल दें। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि कौन मुख्यमंत्री, मंत्री, बड़े अफसर आदि कितना बटोर कर ले जाते हैं- यह कभी सामने ही नहीं आता। भीतर सब मिलकर ही जनता को लूटते हैं। कम से कम राजस्थान में तो स्पष्ट ही है। ऊपर चोला बदलता है, भीतर ड्रेस तो एक ही रही है। इसीलिए स्वयं नेता भी राष्ट्र विरोधी कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
इस प्रवृत्ति का एक दु:खद परिणाम यह हुआ कि राजस्थान में कानून व्यवस्था चौपट हो गई। कार्यपालिका को किसी का डर नहीं, पुलिस तो जैसे उद्योग का दर्जा प्राप्त कर चुकी। न्यायपालिका अपने फैसले लागू न होने पर भी मौन है।
अधिकारियों के विरुद्ध अवमानना के कितने मामले आते हैं? कितने सजा पा चुके? कभी-कभी तो सरकारें स्वयं मुकदमे वापस ले लेती हैं। तब क्यों न माफिया, अपराधी, लुटेरे, हत्यारे, बलात्कारी सिर पर चढ़कर बोलेंगे! कैद काटने के बाद भी सरकारी नौकरी उपलब्ध है। जबकि एफआइआर हो जाने पर व्यक्ति शक के दायरे में आ जाना चाहिए। यह उसी की जिम्मेदारी है कि वह स्वयं को निर्दोष साबित करे। तब तक वह बरी नहीं होना चाहिए।
चुनाव को व्यापार की सोच से बाहर निकालना एक बड़ी अनिवार्यता है। नई सरकारों के स्वरूप में यह आश्वासन संलग्न ही है। जरूरत यह है कि नया व्यापारिक वातावरण न पनपे। बजरी का अवैध खनन, भू-माफिया, शराब माफिया व मादक पदार्थों के अवैध कारोबार पर तो बेरहमी से अंकुश लगाना होगा। पिछली सरकारों ने तो इन क्षेत्रों में जमकर दोहन किया है। जनता कितनी आहत होती है, इसका इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जनता को भी चुप्पी तोड़नी पड़ेगी। क्योंकि उसकी चुप्पी का बड़ा नुकसान तो भावी पीढ़ी को ही होता है। यह पीढ़ी आने वाले समय की वैश्विक चुनौतियों का कितना सामना कर पाएगी, यह बड़ा प्रश्न है। आज तो पेट भरने और ऊपर की कमाई के लिए सरकारी नौकरियों पर आश्रित हैं। वरना, बेरोजगार। अल्पसंख्यक, आरक्षण, जातिवाद जैसी खण्ड दृष्टि ने इन लोगों को भी मुख्यधारा से काट दिया। इनके अधिकांश लोग भी अब सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा की मार सह रहे हैं। नई सरकारों को परिस्थितियों का गहन अध्ययन कर केन्द्र को अवगत कराना चाहिए। ताकि विकास का लाभ हर व्यक्ति तक पहुंच सके। इसके लिए जिस प्रकार सफेद हाथी बने नेताओं को निपटाया है, समाज के इन नकली हाथियों को भी जमीन दिखानी पड़ेगी। इसका एक समाधान तो समान नागरिक संहिता है।
नए सदस्यों को ‘शपथ’ क्यों दिलाई जाती है? क्या वे राष्ट्र की एकता और अखण्डता की अवधारणा को समझ पाते हैं या माटी का कर्ज चुकाने की चिन्ता रखते हैं? क्या शपथ की अवहेलना करने पर सजा का कोई प्रावधान है? ये जिस प्रकार कुर्सियों को पकड़कर बूढ़े हो जाना चाहते हैं, ऐसे में नए लोगों को मार्ग कौन देगा? न विधायिका में आज यह चिन्तन है, न ही कार्यपालिका और न्यायपालिका में। यहां भी सेवानिवृत्ति के बाद सबको पद चाहिए। इसीलिए कार्यकाल में नियमों का उल्लंघन करने को भी तैयार रहना पड़ता है। कुछ ही अछूते रह पाते होंगे। क्योंकि पैसा इंसान से बड़ा हो गया।
तीनों ही प्रदेशों की नई सरकारों के पास एक और बड़ी समस्या आने वाली है। पिछली सरकारों ने चुनाव पूर्व जो योजनाएं लागू की थीं, उनको किस सीमा तक जारी रखें। क्योंकि खजाना सबको खाली मिलेगा। सैंकड़ों-करोड़ों रुपए के भुगतान करने होंगे। कई योजनाएं (पुरानी) बन्द हो चुकी होंगी। नई सरकारों को पार्टी की घोषणाओं को भी लागू करना है। नुकसान तो जीतने वाले का भी वैसा ही होता है, जितना हारने वाले का होता है। शिक्षा-सुरक्षा-स्वास्थ्य-पर्यावरण की प्राथमिकता कम नहीं हो सकती। महिला विकास और सुरक्षा की स्थिति भी गंभीर है। नए बजट पर केन्द्र के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। पत्रिका के ‘अमृतं जलम्’ और ‘हरयालो राजस्थान’ जैसे जनसहयोग पर आधारित अभियान चलाने होंगे। इसी के साथ विभिन्न क्षेत्रों में श्रमदान योजनाएं चलाई जा सकती हैं।
आर्थिक क्षेत्र में क्षमता बढ़ रही है, किन्तु असंगठित उद्योग को स्थानीय स्तर पर्याप्त संरक्षण, अवसर एवं विस्तार देने की आवश्यकता है। ग्रामीण कुटीर उद्योग, आदिवासी वन सम्पदा के उद्योग, शुद्ध पेयजल, यातायात जैसे विषयों पर हम आज भी गंभीर नहीं हैं। इसके बिना सामाजिक समरसता कैसे उपलब्ध होगी?
जनादेश: आगे बढ़े देश
हाल ही में प्रधानमंत्री ने घोषणा की है कि देश की 80 करोड़ जनता को मुफ्त राशन सुविधा पांच साल और मिलेगी। क्या शेष 50-60 करोड़ लोग मुख्यधारा से नहीं अलग हो जाएंगे? क्या यह राष्ट्रीय विकलांगता का आधार नहीं बन जाएगी? इनको मुख्यधारा में लाकर समता का नया संदेश देना पड़ेगा। नए नारे तैयार करने पड़ेंगे। आज हर प्रदेश में घुसपैठ का वातावरण चरम पर है। या तो सरकारें पुलिस पर निर्भर हैं या फिर प्रदेश की चिन्ता ही भूल बैठी। युवाओं के रोजगार पर इसका विपरीत असर पड़ता है। कौन नहीं जानता कि घुसपैठ की समस्या राष्ट्रीय सम्प्रभुता पर कितनी बड़ी चोट है? आज तो यह वोट का साधन है। कल जिसको चोट पड़ेगी वही इसकी पीड़ा भुगतेगा। सरकारों को ऐसे प्रयास करने चाहिए जिससे मतदाता पुन: स्वयं को ठगा महसूस न करे। नहीं तो 2024 में सभी ठगे से रह जाएंगे।
और, अंत में एक प्रार्थना भी- प्रत्येक निर्वाचित सदस्य प्रदेश की विधानसभा का सदस्य होता है, भले ही वह किसी भी दल का हो। सबका मुख्यमंत्री एवं मंत्रिमण्डल भी एक ही है। इसलिए सदन में चर्चा दल के आधार पर न होकर मुद्दों पर आधारित होनी चाहिए। दलों में परस्पर आलोचना, छींटाकशी व आरोप-प्रत्यारोप की बजाए चर्चा मुद्दों तक ही केन्द्रित रहे तो एक स्वस्थ परम्परा नई पीढी तक पहुंच पाएगी।