स्त्री पूरी उम्र स्थूल और सूक्ष्म में साथ-साथ जीती है। पिता-पति-पुत्र के जीव भाव को पोषित करती रहती है। यही उसकी दिव्यता है। उसके सारे कर्म ब्रह्म को समर्पित रहते हैं। उसके पास चार शस्त्र होते हैं—श्रद्धा, स्नेह, वात्सल्य और प्रेम। प्रेम उसका श्रेष्ठतम धन है।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥ (देवी सूक्त) कौन है यह देवी? शक्तिस्वरूपा स्त्री- जिसे नमन किया जा रहा है! शास्त्र भी इसी का यशोगान कर रहे हैं—यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। नारी और देवता का क्या सबन्ध? नारी के साथ नित्य अत्याचार हो रहे हैं, नियमित युद्धों के बनते वातावरण से प्रतिदिन लाखों विधवाएं सड़क पर भोग की वस्तु बन रही हैं। हर घर में- युद्ध क्षेत्रों में- एक पुरुष के साथ एक से अधिक औरतें रहने को बाध्य हैं। वैसे भी उपभोक्तावाद की चरम स्थिति भी मानव को भोग का साधन बना चुकी है। स्त्री तो स्वतन्त्रता के नाम पर अकेली ही संघर्ष करने को मजबूर है।
सारे संघर्षमय जीवन के बाद भी स्त्री को देवी कहा जाता है। यहां तक कि उसके कन्या रूप को भी पूजा जाता है। यह भी सत्य है कि सृष्टि विस्तार के लिए योषा तत्त्व (स्त्री) की रचना की जाती है। स्त्री तत्त्व के उपरत होते ही प्रलयकाल का आरंभ हो जाता है। वहां न सृष्टि है, न नारी। पहली बार मधु-कैटभ के भय से विष्णु की नाभि में स्थित ब्रह्मा निद्रा देवी का आह्वान करते हैं कि वे आकर विष्णु को जगाएं ताकि उनकी रक्षा हो सके। निद्रा देवी का ब्रह्मा के साथ कोई सृष्टिगत सबन्ध नहीं होता।
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सपूर्ण सृष्टि एक ही ब्रह्म तत्त्व पर आश्रित है। ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’। एक से सृष्टि नहीं होती। ब्रह्म भी अदृश्य रूप ऋत संस्था है। वह कामना भी करता है— एकोहं बहुस्याम्, किन्तु कहां मिले उसका बीज और कहां से बीज की आहुति के लिए यज्ञ वेदी? ब्रह्म जैसे तत्त्व के बीज को गर्भ में धारण करना सहज कार्य नहीं। क्योंकि सन्तान भी ब्रह्म ही होगी- अहं ब्रह्मास्मि। पुन: उसका बीज भी सूक्ष्म अदृश्य-ऋत ही होगा। भले ही सृष्टि स्थूल हो। चौदह भुवन बने, 84 लाख योनियां बनीं, एक ही ब्रह्म बीज से। सभी को गर्भ में धारण किया एक ही योषा ने। क्या यह उसकी दिव्यता नहीं है? पंचाग्नि में पांचों आहुतियां उसी एक ब्रह्म की, योनियों के स्वरूप भले ही भिन्न-भिन्न हो, आहुति, विकास और पोषण क्रम तो एक ही था न? सूक्ष्म से स्थूल की ओर। क्या उस जगत पिता ब्रह्म की जननी ‘दिव्य’ स्वरूपा नहीं होगी? ब्रह्म को दस माह तक धारण करना कोई स्थूल कर्म नहीं है। यह काल ब्रह्म के लिए गुरु की ज्ञानशाला का है। विश्व का श्रेष्ठतम सप्रेषण है। इसमें शब्द-भाषा गौण रहते हैं। ब्रह्म सूक्ष्म स्तर पर रहता है। माता स्थूल शरीर में रहकर सूक्ष्म स्तर पर आदान-प्रदान करती है। स्थूल शरीर से सन्तान पैदा करने के लिए किसी प्राणी को प्रशिक्षण नहीं लेना पड़ता। मां का संवाद सूक्ष्म आत्मा को स्थूल जगत से परिचित कराता है। परिवार और भविष्य से परिचित कराता है। इसके अभाव में पशु देह छोड़कर आया जीव मानव देह का उपयोग भी पशुवत ही करेगा, असुर की तरह करेगा।
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मां का मूल कार्यकाल गर्भकाल ही होता है। जीव के इतिहास, वर्तमान और भविष्य पर निर्णय करने का काल है। इसके लिए समय-समय पर अक्षर-सृष्टि के सपर्क में रहना पड़ता है। सपनों को पढ़ना पड़ता है- गर्भ को गढ़ना पड़ता है। यही तो ब्रह्म के भावी स्वरूप का निर्माण है। यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।। (गीता 10.41) अर्थात् जो-जो भी ऐश्वर्य, कान्ति, शक्ति युक्त है, वह मेरे तेज की अभिव्यक्ति है। सूर्य के तेज को राधा कहा है। राधा के कारण विष्णु (सत्यनारायण) तेजस्वी जान पड़ते हैं। नहीं तो सूर्य तो कृष्ण पिण्ड है। आप किसी प्राणी पर दृष्टि डालें- शरीर ही विभूति का दर्पण है। कहां से आता है शरीर? प्रत्येक शरीर का निर्माण तो एक ही बीज से होता है। बीज के प्राणों का प्राकट्य ही विभूति है। गीता का विभूति-योग प्रमाण है शक्ति के प्रभाव का। शक्ति ही शक्तिमान की परिचायक होती है। शक्ति अदृश्य ही रहती है। स्थूल देह का निर्माण भी वही करती है, किन्तु स्वयं सूक्ष्म भाव में रहती है। शरीर पत्नी का हो अथवा मां का, उसका सबन्ध केवल पुरुष से है। संवाद भी उसी से करती हैै—परोक्ष प्रिया वै देवा, अनृता मनुष्या। यही वह कारण है कि स्त्री के माया भाव का आकलन नहीं हो पाता। इसके लिए पुरुष को भी उसके धरातल पर उतरना होगा।
स्त्री जानती है कि वह ब्रह्म के बीज की धारक नहीं है। अत: पति को ब्रह्म का प्रतिनिधि मानती है। यह उसकी दिव्यता का प्रमाण है कि स्वयं सूक्ष्म का ज्ञान रखते हुए स्थूल (पुरुष) को बड़ा मानकर जीती है। उसके बीज-प्राण पति के बीज-प्राण के साथ पति के हृदय में रहते हैं। उसके कर्म पति के कर्मों में समाहित हो जाते हैं। पति की सातों पीढ़ियों से उसका सबन्ध हो जाता है। पति तो स्वयं ब्रह्म ही है। सात पीढ़ियों के बाद स्त्री का पितर लोक से सबन्ध विच्छेद हो जाता है। आधुनिक विवाह में नारी की भूमिका देह से आगे नहीं जाती। देह के भीतर अदृश्य संस्थाओं से उसका परिचय तक होता ही नहीं। उसका शक्ति रूप पंचभूत बनकर समाप्त हो जाता है।
स्त्री पूरी उम्र स्थूल और सूक्ष्म में साथ-साथ जीती है। पिता-पति-पुत्र के जीव भाव को पोषित करती रहती है। यही उसकी दिव्यता है। उसके सारे कर्म ब्रह्म को समर्पित रहते हैं। उसके पास चार शस्त्र होते हैं—श्रद्धा, स्नेह, वात्सल्य और प्रेम। प्रेम उसका श्रेष्ठतम धन है। वही उसके आदान-प्रदान का माध्यम भी है। शेष तीनों स्थूल देह साक्षी हैं। उसका प्रेम ब्रह्म की दोनों विद्याओं में उसे प्रवीण करता है। लक्ष्मी पृथ्वी है—अन्न ब्रह्म से पोषण करती है। सरस्वती ऊर्जा है—वाक् में दक्षता देती है। लक्ष्मी अर्थवाक् है, सरस्वती शब्द वाक्। स्त्री दोनों की अधिष्ठात्री होती है। नई स्त्री अर्थ प्रधान बनकर जीना चाहती है, भले ही वाक् विषैली हो जाए। जो अन्य व्यक्ति के आत्मा को प्रशिक्षित कर सकती है, आज स्वयं को भूल बैठी। वाह देवी! निर्वीर्य होकर वीर्यवान से स्पर्धा में जुट गई।
आज की शिक्षा के कारण भौतिकता, उपभोक्तावाद और देह सुख की मानसिकता का विकास। कृषि क्षेत्र में रसायनों-कीटनाशकों ने ब्रह्म-बीज पर आक्रमण बोल दिया। बीज ने भोक्ता के शरीर को खोखला कर दिया। भावी फसलों की भी दुर्दशा कर दी। सारा कुछ धरती माता के गर्भ में हुआ। यही हाल मां के गर्भ में भी हुआ। ब्रह्म बीज को नष्ट करने के कुत्सित् प्रयास-गर्भनिरोधक कीटनाशक। जो-जो असुर ब्रह्मा को मारने आए थे, देवी ने सबको मार डाला। ब्रह्मा के जन्म और पोषण के दो संस्थान होते हैं—गर्भाशय और स्तन संस्थान। क्रोधित देवी इन दोनों पर आक्रमण कर देती है। दोनों को काटकर शरीर से बाहर फेंकना पड़ जाता है। उसे तो ब्रह्म की रक्षा करनी है। गर्भावस्था की अमर्यादा सन्तान को अपाहिज कर देती है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने स्त्री की दिव्यता छीन ली। उसे स्थूल देह से बांधकर रख दिया। सुख-सुविधाओं के आगे सपने ही नहीं देखती। पुरुष सूक्ष्म देह से सपर्क नहीं कर पाता। स्त्री ही पति के साथ उसके सूक्ष्म हृदय में रहती है। उसका निर्माण करती रहती है। पहले पिता का, भाई का और बाद में पति का, पुत्र का। मूल में तो पिता को पुत्र भी वही बनाती है। पुत्री भी बनाती है। क्या यह उसके कर्म की दिव्यता नहीं है? वैसे तो सृष्टि के सारे कर्म प्रकृति ही करती है, ब्रह्म तो अकर्ता है। पुरुष भी अपना ब्रह्म स्वरूप भूल बैठा। पश्चिम की नकल ने भोगी बना दिया। पशुवत शरीर के लिए जीने लगा। इसी प्रवाह में स्त्री का ‘देवी’ रूप लुट गया।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com