scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड: ब्रह्म की प्रकृति : स्त्री | patrika editor in chief gulab kothari special article 31th august 2024 sharir hi brahmand | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: ब्रह्म की प्रकृति : स्त्री

गीता में पुरुष-प्रकृति-वर्ण-आश्रम की ईश्वरीय व्यवस्था को अलग-अलग ढंग से समझाया गया है। इस बात को समझना, विश्वास करना और प्राकृतिक रूप में स्वीकार करना जरूरी है। प्रकृति को जीत नहीं सकते। परिवर्तन नित्य है।

जयपुरAug 30, 2024 / 09:20 pm

Gulab Kothari

-गुलाब कोठारी
गीता में पुरुष-प्रकृति-वर्ण-आश्रम की ईश्वरीय व्यवस्था को अलग-अलग ढंग से समझाया गया है। इस बात को समझना, विश्वास करना और प्राकृतिक रूप में स्वीकार करना जरूरी है। प्रकृति को जीत नहीं सकते। परिवर्तन नित्य है। दूसरा परिवर्तन का स्वरूप प्रकृति तंत्र का अंग है। हमारा स्वभाव वर्ण के अनुसार भी बदलता है और आश्रम के अनुसार भी। प्रकृति स्वयं भी ईश्वरीय व्यवस्था का अंग है। पुरुष ईश्वर का प्रतिनिधि है। ब्रह्म-बीज का वाहक है। उसी को ‘बहुस्याम्’ होना है। आश्रम, वर्ण, स्त्री आदि सभी साधन रूप हैं। निमित्त रूप कार्य करते हैं। ब्रह्म का पहला सृष्टि यज्ञ होता है- महद् योनि में, मह: लोक में। यहीं पर प्रकृति-अहंकृति-आकृति प्रतिबिम्बित हो जाती है। प्रकृति के सत्व-रज-तम के अनुरूप आत्मा के वर्ण ब्रह्म-क्षत्र्-विट् भी तय हो जाते हैं। यही पुरुष की प्रकृति रूप में- शक्ति रूप में- कार्य करते हैं। यही पुरुष-प्रकृति का दाम्पत्य भाव व्यक्ति का स्वभाव बनता है। कृष्ण कहते हैं कि स्वभाव के अनुसार ही कर्म होना चाहिए-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। (गीता 18.47)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। (गीता 3.35)

बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत कर रहे हैं कि अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपना धर्म मृत्यु में भी कल्याणकारी है। दूसरे का धर्म भय देने वाला है।
यहां ‘धर्म’ शब्द का अभिप्राय बहुत गहन अर्थ वाला है क्योंकि हर व्यक्ति का अपना धर्म, हर वर्ण का अपना धर्म, हर आश्रम का अपना धर्म और इन सबके बीच दम्पति का अपना धर्म होता है। दम्पति में धर्म शब्द पुरुष पर लागू होता है। वर्ण उसी का होता है, पत्नी के प्राण भी उसी के हृदय में रहते हैं। अत: पति का धर्म ही उसका भी धर्म बन जाता है। विवाह के बाद उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहता। विवाह पूर्व वह कोरा कागज है। जिस वर्ण के पुरुष की पत्नी बनती है, वैसा ही धर्म उसे अंगीकार करना है। सम्पूर्ण सृष्टि पुरुष (ब्रह्म) प्रधान ही है।
स्त्री को पुरुष की अद्र्धांगिनी बनना है। वर्ण व्यवस्था के चलते उसे ज्ञात रहता था कि उसके भविष्य की गृहस्थी का स्वरूप क्या होगा। आज यह व्यवस्था टूटती जा रही है। शरीर ही विवाह का आधार रह गया। न स्त्री को अपनी वर्ण व्यवस्था का ज्ञान, न पति की वर्ण व्यवस्था का। स्त्री का वर्ण उसकी परिवार-परम्परा का भाग होता है। वीर्यात्मक वर्ण तो पुरुषात्मा (ब्रह्म) का ही होता है। कन्यादान के साथ ही वह तो पति के वर्ण में लीन हो जाती है। पिता का वर्ण प्राणों के साथ कन्यादान के समय पति के प्राणों में समा जाता है। पति यदि अन्य वर्ण का हुआ तो सन्तान वर्णसंकर होगी।
चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। (गीता 4.13)

अर्थात् चारों वर्णों का समूह, गुण एवं कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। यद्यपि चारों वर्ण कृष्ण की देन है फिर भी वर्ण व्यवस्था के ब्रह्म-क्षत्र् दोनों वीर्य एक अलग श्रेणी के हैं। दोनों ही समाज का नेतृत्व करने वाले रहे हैं। ब्राह्मण ज्ञानार्जन में रत रहता है। क्षत्रिय शासन करता है। ब्राह्मण सत्वगुण प्रधान होता है, क्षत्रिय रजोगुण प्रधान। दोनों का जीवन समाज को अर्पित होता है। वैश्य और शूद्र अपने परिवार को पालने के लिए तथा संग्रह और वितरण व्यवस्था बनाने के लिए कार्य करता है। इनको भी सार्वजनिक हित और वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा को अंगीकार करने की आवश्यकता पड़ती है। सभी वर्णों की मुक्ति में भक्ति मार्ग समाधान है। कृष्ण कह रहे हैं कि अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि भी मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं—
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। (गीता 9.32)

स्त्री का आत्मा विवाह में पति के आत्मा का भक्त बन जाता है। उसके पूर्व वह एक स्वतंत्र आत्मा (कोरा कागज) रूप होती है। पिता के आत्मा का (पिता के अभाव में भाई के आत्मा का) अंश बनकर जीती है। विवाह पश्चात् तो पति का वर्ण, पति का आश्रम ही उसके धर्म के स्वरूप हो जाएंगे। उसके आत्मा का वर्ण स्वतंत्र नहीं होता। न ही आश्रम स्वतंत्र होता है।
यह स्त्री शक्ति ही है जो वर्ण बदल सकती है। जिस भी वर्ण के घर में गई, वैसे ही रिवाज-परम्पराएं ग्रहण कर लेती है। हालांकि आज इसकी इतनी आवश्यकता नहीं पड़ती। अधिकांश शिक्षित परिवार भारतीय संस्कृति को अपनाना ही नहीं चाहते। स्वच्छन्दता चाहते हैं। इसमें न बन्धन है, न ही कोई बड़ा उत्तरदायित्व। न मां-बाप का दबाव। जब तंग आए, अलग हो गए।
सुखद स्थिति में भी स्त्री को ही तैयारी दिखानी होती है। नए घर की बात तो हर एक के सामने आती है। प्रश्न केवल भिन्न वर्ण का है। शादी के बाद भी, परम्परागत शादी में भी, आश्रम व्यवस्था के अनुकूल, व्यवस्था बदलते रहना पड़ता है। गृहस्थाश्रम की भूमिका लगभग एक ही होती थी। आज नहीं है। वानप्रस्थ और संन्यास जीवन से बाहर निकल गए। गृहस्थ के अलावा शेष कुछ नहीं। महिला का पौरुष रूप तथा पुरुष का स्त्रैण भाव प्रकट ही नहीं हो पाते। भौतिकवाद ने आस्था-अध्यात्म को बाहर कर दिया। जीवन नीरस होता जा रहा है। स्त्री की निर्माण कला ओझल होने लगी है। आश्रम व्यवस्था की चर्चा सेवा निवृत्ति के बाद भी नहीं होती। निजी क्षेत्र में तो सेवानिवृत्ति ही नहीं है। स्त्री के मन की व्यथा कोई जान नहीं पाएगा। भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश कर पाना भी असंभव सा होगा। पुरुष जीवनशैली में वर्ण-आश्रम का इतना असर होता ही नहीं। सारा दायित्व स्त्री को ही उठाना पड़ता है।
शास्त्र कहते हैं कि स्त्री जन्म से ही देवगुरु बृहस्पति एवं दैत्य गुरु शुक्राचार्य की नीतियों को साथ लेकर आती है। उसे छोटा-बड़ा-बराबर का व्यवहार करना भी आता है। यह कला पुरुष में नहीं होती । वह भीतर पुरुष होने से दृढ़ संकल्प के साथ कर्म करती है। पुरुष भीतर स्त्री होने से अपने निश्चय में लचीला होता है। स्त्री की सलाह स्वीकार करके चलता है। यहां स्त्री का अर्थ नारी या मादा नहीं है। अंग्रेजी में जो प्रसिद्ध लोकाचार की उक्ति है—made for each other, जिनके मध्य हवा भी प्रवेश नहीं कर सकती। हिन्दी इससे भी आगे ले जाती है—ता में दो न समाय।
इसी स्वरूप की प्राप्ति स्त्री जीवन का- माया रूप में लक्ष्य रहता है। ब्रह्म सृष्टि में अकेला था। उसे फैलना था- स्त्री की रचना की। अर्थात्- स्त्री प्राकृतिक तत्त्व नहीं है। ब्रह्म की प्रकृति का नाम ही स्त्री है। वह स्थूल नहीं सूक्ष्म स्तर पर कर्म करती है। प्रारब्ध का प्रभाव समझती है। नारी नश्वर होती है। पुरुष की सात पीढिय़ों के अंश स्त्री से जुड़ते हैं, किसी अन्य नारी से नहीं जुड़ सकते। अत: हर योनि में ब्रह्म तो वही रहता है, माया का स्वरूप-आकृति, प्रकृति-बदलती जाती है।
समय के साथ स्त्री ही पति के मन में विरक्ति पैदा करती है। अन्य नारी आसक्ति का कारण बनकर काम-क्रोध का ही मार्ग प्रशस्त करती है। पत्नी मोक्षमार्गी- वैराग्य भाव की जननी बनती है, ताकि दोनों आत्माएं साथ-साथ मुक्त हो सकें। यही उसका शक्तिरूप है- भीतर है- सूक्ष्म है- दैविक है। अन्तकाल में नारी भोग में अटकाती है जबकि स्त्री योग में। कृष्ण भी इसी रहस्य को उद्घाटित कर कह रहे हैं कि अन्तकाल में मनुष्य जिस भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उसको वही प्राप्त होता है-
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।। (गीता 8.6)

क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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