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शरीर ही ब्रह्माण्ड: कन्यादान : वर में आते श्वसुर के प्राण

शरीर के निर्माण में मां की ही मूल भूमिका रहती है। मां के प्राण ही उम्र और परिस्थिति के अनुरूप शरीर (आकृति) का संचालन करते रहते हैं। पिता के प्राण बीज रूप में सपूर्ण शरीर में व्याप्त रहते हैं। माता द्वारा निर्मित शरीर में प्रवाहित रहते हैं। बीज में ही सन्तान का पूर्ण स्वरूप निहित रहता है।

जयपुरNov 16, 2024 / 02:34 pm

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
हमारा जीवन दृश्य भी है और अदृश्य भी। अदृश्य तीन चौथाई है, दृश्य एक चौथाई। जो कुछ तीन चौथाई, अदृश्य में घटित होता है, वही दृश्य में अभिव्यक्त होता है। यही कारण है कि अदृश्य सदा चर्चा से ओझल रहता है। शरीर को भी हम पूर्ण व्यक्तित्व मान बैठते हैं। जीवन सूक्ष्म में चलता है। जीवात्मा, प्राण आदि ही तो जीवन के अंग हैं। ये विज्ञान के माप-तोल से दूर होने के कारण पदार्थ और ऊर्जा ही जीवन के पर्याय बन गए। ये नित्य परिवर्तनशील स्थूल धरातल हैं और उपकरणों की पकड़ में आ सकते हैं। पुरुष और प्रकृति दोनों ही सूक्ष्म होने के कारण इनका विवेचन भी व्यष्टिपरक मानना चाहिए। पुरुष की अभिव्यक्ति उसकी अपनी प्रकृति के अनुरूप होती है।

सम्पूर्ण युगल सृष्टि का आधार नर-मादा है। चाहे मृत्युलोक की हो, स्वर्गलोक की या पितरलोक की। शरीर भी दोनों के भिन्न-भिन्न होते हैं। सिद्धान्त एक ही होते हैं। युगल तत्त्व सातों लोकों में होता है। प्रत्येक पुरुष शरीर में बीज तो वही (ब्रह्म) होता है। तब क्या माया भी वही होती है? नहीं तो सृष्टि विवर्त भाव में नहीं हो सकती। अग्नि में सोम की आहुति होने पर सोम यज्ञ में जलता नहीं, नया तत्त्व रूप बन जाता है। महद्लोक* में सोम की आहुति से अत्रिप्राण* पर प्रतिबिम्ब पड़ता है सोम का। आहुति में सोम का स्थूल भाग काम आ जाता है। सोम को मातरिश्वा* वायु ही डिंब स्थित अत्रि प्राण पर लेकर जाता है। यह बिम्ब ही आगे जीवात्मा का रूप धारण करता है।

पुरुष हृदय में ब्रह्म प्रतिष्ठित रहता है। तीनों अक्षर आग्नेय प्राण—ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र इस प्रतिष्ठा को बनाए रखते हैं। इसका स्वरूप तीनों शक्तियां—महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती ही तय करती हैं। ब्रह्म ही ब्रह्मा प्राण की प्रतिष्ठा बनता है। क्षर सृष्टि में ‘प्राण’ के गर्भ में ब्रह्मा ही स्थूल भाव की ओर अग्रसर होता है। शरीर के निर्माण में मां की ही मूल भूमिका रहती है। मां के प्राण ही उम्र और परिस्थिति के अनुरूप शरीर (आकृति) का संचालन करते रहते हैं। पिता के प्राण बीज रूप में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहते हैं। माता द्वारा निर्मित शरीर में प्रवाहित रहते हैं। बीज में ही सन्तान का पूर्ण स्वरूप निहित रहता है। सन्तान में पिता की सात-पीढिय़ों के पितर प्राण निहित रहते हैं।

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विवाह के दौरान होने वाले कन्यादान की प्रक्रिया में वधू के पिता के प्राण भी वर के प्राण से युक्त हो जाते हैं। इनके भी सात पीढिय़ों के प्राण एकाकार हो जाते हैं। अब वर के बीज में वधू के पिता का बीज भी मिल गया। वधू की माता का भाग वधू का शरीर (आकृति) होता है। वर की आकृति उस की माता द्वारा प्रदत्त होती है। प्रजनन प्रक्रिया में दोनों पक्षों के पिता का रेत (मूल में एक) ही वधू के माता-प्रदत्त शोणित में आहुत होता है। सूक्ष्म भाव में शक्ति ही आगे से आगे प्रवाहित होती जाती है। एक शरीर से दूसरे शरीर तक ब्रह्म (बीज) की यात्रा प्राणशक्ति पर आधारित रहती है। मातरिश्वा ही गर्भाशय में बुद्बुद् रूप ‘पुर’ का निर्माण करता है। बीज का ग्राहक अत्रि प्राण होता है। ब्रह्म में कर्ता भाव नहीं है। सम्पूर्ण गति-क्रिया और स्वरूप निर्माण सूक्ष्म स्तर पर प्रकृति द्वारा ही संचालित-नियंत्रित होता है।

हमारे तीनों शरीरों- स्थूल-सूक्ष्म-कारण- के तीनों धरातलों पर मन-प्राण-वाक् का पोषण भी उतना ही आवश्यक है। तीनों ही ब्रह्म के आश्रय का निर्माण करते हैं। उसके जीवन का- प्राणों का संचालन करते हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है मन का पोषण। मन ही श्वोवसीयस मन* का प्रतिबिम्ब है, कामना का केन्द्र है और इन्द्रियों-प्राणों द्वारा विचलित होता रहता है-
चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। (गीता 6.34)

मन ब्रह्म है, इच्छा-कामना ही माया है। पुरुष मन है- स्त्री कामना है। कामना ही जीवन है। अत: मन ही मित्र और शत्रु कहा जाता है। समष्टि रूप में कामना ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा को लक्ष्य बनाती है। ईश्वरीय रूप हो जाता है जीवन। व्यष्टि रूप में संकुचित होकर स्वयं को ही कर्ता मान बैठता है। मन को प्रेम का मन्दिर कहा है, जहां ईश्वर प्रतिष्ठित रहता है। ‘ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता)।

मन माधुर्य का भण्डार बन सकता है। इस प्रेम की प्रेरणा पुत्री/बहन रूपी माया से प्राप्त होती है। मातृत्व भाव स्त्रैण-मन का मूल स्वरूप है। हर उम्र में इसका साक्षात् किया जा सकता है। मां रूप में वात्सल्य देती है। वह भी मन का ही पोषण है। मां के पास जाओ या पुत्री के साथ खेलो, मन ही तृप्त होता है। मिठास और आनन्द मिलता है। बुद्धिजीवी पुरुष अकेला जीता है। दूसरे उसके अहंकार को छोटे लगते हैं। मन नीरस होता है उसका। तब उसको मिठास कौन देगा? या तो मां या पुत्री!
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पत्नी भी माया का ही शक्ति रूप है। वह तो अद्र्धांगिनी है। उसके प्राण तो पति के प्राण के साथ पति के हृदय में प्रतिष्ठित होते हैं। यहां मां के सूक्ष्म प्राण जन्म से ही प्रवाहित रहते हैं। आज गंधर्व विवाह का युग आरंभ हो चुका है। कन्यादान कोर्ट में होता ही नहीं है। पत्नी के पिता के प्राण पति तक पहुंचते ही नहीं। पीहर में ही छूट जाते हैं। पूरी उम्र पीहर से जुड़ी रहती है। पति के पास केवल मां का वात्सल्य रहता है। श्रद्धा-स्नेह छूटे रहते हैं। यही स्थिति तब भी होती है, जब पत्नी भी बुद्धिजीवी होती है। तब दोनों के बुद्धि का धरातल प्रभावी रहता है। श्रद्धा-वात्सल्य-प्रेम का अभाव रहता है। अच्छे क्षणों में स्नेह मिल जाता है।

प्रकृति रूप में प्रतिष्ठित पत्नी का श्रद्धा-प्रेम-वात्सल्य और स्नेह मां के वात्सल्य में लीन हो जाता है। मां ने जीवात्मा का एक स्वरूप निर्माण गर्भ में किया- वर्तमान में जीने के लिए। पत्नी भविष्य का निर्माण हाथ में लेती है। उसी अनुरूप पुरुष का मूर्त रूप तैयार करने लगती है। यह भूमिका इतनी सूक्ष्म होती है कि स्वयं पति को भी नहीं दिखाई पड़ती। उसका सारा कर्म सूक्ष्म स्तर का होता है। दूसरी ओर, स्थूल स्तर पर पति के कर्मों में भागीदारी भी करती है, कर्मों का आकलन भी करती है। उसी को आधार बनाकर पति की मूर्ति गढ़ती है। शायद यह कार्य विश्वकर्मा भी नहीं कर सकते।

बीज-शून्य होने से वह ब्रह्म का अंश नहीं हो पाती, किन्तु पति रूपी ब्रह्म की अद्र्धांगिनी होने से वह प्रवेश संभव हो जाता हैं। अत: ब्रह्म के मन में विरक्ति पैदा करती है। पहले स्वयं प्रजनन-कर्म से मुक्त होकर वानप्रस्थ में प्रवेश लेती है। पति को सौम्य भाव का पोषण करके भक्ति-सेवा में प्रवृत्त करती है। वैराग्य और ऐश्वर्य के क्षेत्र का प्रसार करती है। अन्त में पति के साथ स्वयं भी मुक्त हो जाती है। ब्रह्म स्वयं निष्काम है। माया ही कामना है- आसक्ति है, माया ही विरक्ति बन जाती है।
क्रमश:
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