प्रोडूनोवा वॉल्ट जिम्नास्टिक्स की सबसे कठिन और खतरनाक वॉल्ट्स में से एक मानी जाती है। इसे आमतौर पर ‘डबल फ्रंट वॉल्ट’ भी कहा जाता है। इसमें जिम्नास्ट को वॉल्टिंग टेबल पर कूदने के बाद हवा में डबल फ्रंट फ्लिप्स करनी होती हैं और फिर दोनों पैरों के बल सही तरीके से लैंड करना होता है। इसमें जरा-सी चूक गर्दन, पीठ या सिर में गंभीर चोट पहुंचा सकती है। दीपा का ऐसे जोखिम भरे खेल में महारत पाना व रिओ ओलंपिक में चौथे पायदान पर आना वास्तव में सराहनीय है। वह यह कमाल करने वाली न केवल भारत की पहली जिम्नास्ट रहीं, बल्कि दुनिया की भी चुनिंदा पांच जिम्नास्टों में गिनी गईं।
दीपा का इस मुकाम तक पहुंचना इसलिए भी मायने रखता है कि उन्होंने त्रिपुरा राज्य और सामान्य परिवार से निकलकर जिम्नास्टिक जैसे कठिन खेल को चुना। मझा हुआ जिम्नास्ट बनना इसलिए भी चुनौती रही क्योंकि उनके पैरों के तलवे सपाट थे। जिम्नास्ट के लिए यह शारीरिक स्थिति आदर्श नहीं मानी जाती, क्योंकि इससे खेल में लचीलापन और उछाल प्रभावित होता है। दीपा ने समर्पण और कड़ी मेहनत से न केवल इस कमी को दूर किया, बल्कि पैरों में आर्च विकसित करके खुद को बेहतरीन जिम्नास्ट के रूप में साबित भी किया।
2014 के ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीतने के साथ उनकी सफलता का दौर शुरू हुआ और चार साल तक कई अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में उन्होंने पदक प्राप्त किए। घुटने की सर्जरी व अन्य चोटों के चलते दीपा को जिम्नास्टिक की ताल से ताल मिलाने में मुश्किल आ रही थी। डोप टेस्ट में फेल होने पर उन पर पाबंदी भी लगी। इन नकारात्मक पहलुओं से उनकी कामयाबी व कीर्तिमान कई गुना बड़े हैं। सरकार ने उन्हें खेलरत्न व पद्मश्री पुरस्कार से भी नवाजा, पर दीपा के मन में यह टीस तो रहेगी कि उन्हें कभी सेलिब्रिटी का दर्जा नहीं मिला, जिसकी वह हकदार थीं। भले ही दीपा ने प्रतिस्पर्धात्मक जिम्नास्टिक्स से संन्यास ले लिया है पर खेल प्रशासकों को उनके अनुभव और ज्ञान का इस्तेमाल नई पीढ़ी के जिम्नास्ट तैयार करने में करना चाहिए।