नक्सली नेता दावा करते हैं कि उन्होंने आदिवासियों के हितों के लिए लड़ाई छेड़ रखी है, पर विकास और जनकल्याणकारी योजनाओं के खिलाफ कुचक्र रचकर वे खुद गरीब आदिवासियों का सबसे ज्यादा अहित कर रहे हैं। उगाही के लिए वे आतंक फैलाते हैं और सुरक्षा बलों पर हमलों के लिए ए.के. 47 जैसे हथियार जुटाने के साथ बारूदी सुरंगें बिछाते हैं। उन्हें कड़ा संदेश देना जरूरी है कि संविधान और लोकतंत्र के खिलाफ उठने वाली बंदूकों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। बार-बार आग्रह के बावजूद हथियार छोडक़र मुख्यधारा में शामिल होने से इनकार करने वाले नक्सलियों को सबक सिखाना जरूरी है।
छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ को नक्सलियों का कोर इलाका माना जाता है। जंगलों और पहाड़ों के बीच का यह इलाका तीन दशक से सुरक्षा बलों के लिए चुनौती बना हुआ है। इन जंगलों का इस्तेमाल नक्सली छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले से ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र आने-जाने के लिए गलियारे के तौर पर करते हैं। जाहिर है, छत्तीसगढ़ के साथ ये राज्य भी नक्सली समस्या से जूझ रहे हैं। अबूझमाड़ में नक्सलियों के गढ़ को ढहाना उनके अलोकतांत्रिक कदमों के लिए सबसे बड़ा झटका होगा।
नक्सल विरोधी अभियान का एक चिंताजनक पहलू भी है। वह यह कि खुफिया तंत्र की सतत निगरानी के दावे के बावजूद नक्सली रह-रहकर सुरक्षा बलों पर हमले करते हैं और फिर भूमिगत हो जाते हैं। इससे सरकार के इस दावे की कलई खुल जाती है कि छत्तीसगढ़ में नक्सली समूहों पर नकेल कसी जा चुकी है और उनका प्रभाव बहुत छोटे इलाके तक सीमित रह गया है। ऐसे में नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की सख्ती के समानांतर इस समस्या की जड़ों पर वार करना भी जरूरी है। इसके लिए निरंतर सामाजिक-आर्थिक पहलुओं की पहचान के साथ निदान के प्रयास करने ही होंगे।