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आदिवासी सम्मान में बने राष्ट्रीय महुआ शराब नीति

कानून में हो बदलाव: क्या कुछ ऐसा किया जा सकता है जिससे सरकार के साथ-साथ आदिवासियों की भी आमदनी हो

जयपुरSep 25, 2024 / 10:41 pm

Nitin Kumar

शुभ्रांशु चौधरी
आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता
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आज से 150 साल पहले अंग्रेजों को यह समझ में आ गया था कि अगर गैर-आदिवासी लोग भी महुए की शराब पीने लगे तो भारत में अंग्रेजी शराब की बिक्री कम हो जाएगी और उन्होंने 1878 में बॉम्बे आबकारी एक्ट बनाकर महुए के फूल को इक_ा करने और उससे शराब बनाने पर पाबंदी लगा दी थी। 1892 में महोड़ा एक्ट बनाकर अंग्रेजों ने उस पाबंदी को और मजबूत किया था। आज देश में ही बनी अंग्रेजी शराब का बड़ा व्यापार है। कई राज्य अपनी आमदनी का 15-20 प्रतिशत आबकारी टैक्स से कमाते हैं। कई मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री जैसे ताकतवर लोग इस विषय से जुड़े कथित घोटालों में जेल में हैं या थे, और कुछ के खिलाफ मामले चल रहे हैं। पर हम चर्चा महुए की शराब की करना चाहते हैं।
छत्तीसगढ़ में सर्व आदिवासी समाज के नेता अरविन्द नेताम बताते हैं कि 70 के दशक में जब वे इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में शामिल थे तब एक दिन इंदिरा गांधी को आदिवासियों के जीवन में महुए का महत्त्व समझाया था ‘और फिर इंदिरा जी ने नया कानून बनवाकर आदिवासियों के लिए महुआ बीनने व अपने उपयोग के लिए शराब बनाने से पाबंदी हटवा दी थी।’ आदिवासी सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का कोई भी काम महुए की शराब के बिना नहीं होता है।
आदिवासियों के आर्थिक जीवन के बारे में चर्चा बेहद जरूरी है। इस जीवन में महुआ शराब एक आमूलचूल परिवर्तन ला सकती है, यदि थोड़ा सोच-समझकर एक कानून बनाया जाए। महुए की शराब बेचने पर 150 साल पहले अंग्रेजों द्वारा लगाई गई पाबंदी आज भी लगभग वैसे ही लागू है। अंग्रेजों ने नमक पर टैक्स लगाया था, महात्मा गांधी ने उसके खिलाफ आंदोलन किया। (यद्यपि नमक पर लागू उस टैक्स को नेहरू ने हटाया)। अंग्रेजों ने रुई और कपड़े पर भी पाबंदी लगाई थी जिससे इंग्लैंड में बना कपड़ा यहां बिक सके। इंदिरा गांधी के बनाए कानून के बाद महुए की शराब अधिकाधिक आदिवासियों के घर में बनती है। गैर-कानूनी रूप से यह लगभग हर आदिवासी हाट में बिकती भी है पर इसके लिए पुलिस और आबकारी विभाग वाले आदिवासियों को अक्सर परेशान करते हैं। आजकल शहरों में भी अवैध एमडी (महुआ दारू) धड़ल्ले से बिकती है पर उससे सरकार को कोई आमदनी नहीं होती।
क्या कुछ ऐसा किया जा सकता है जिससे सरकार के साथ-साथ आदिवासियों की भी आमदनी हो? गुजरात से अमूल (आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड) का उदाहरण हमारे सामने है जहां घर-घर से दूध इक_ा कर देश-विदेश में बेचने का एक सफल प्रयोग किया गया। आजादी के पहले 1946 में यह प्रयोग शुरू हुआ था जब दूध बेचने पर कोई पाबंदी तो नहीं थी पर किसानों को दूध का सही दाम नहीं मिलता था। वल्लभ भाई पटेल और मोरारजी देसाई जैसे लोगों ने इस यूनियन को शुरू करने में मदद की थी जिसने आजादी के बाद वर्गीज कुरियन को मैनेजर नियुक्त किया। इसके बाद अमूल ने इतिहास रचा, जिसके बारे में सब जानते हैं। क्या दूध की तरह महुआ का भी प्रयोग किया जा सकता है? संभव है कि महुआ आदिवासी सहकारिता समूह को भी एक योग्य मैनेजर की जरूरत पड़े लेकिन इसके पहले इस विषय पर कानून बदलने में क्या केन्द्रीय सहकारिता मंत्रालय या नीति आयोग पहल कर सकता है?
हाल ही में कुछ राज्यों जैसे मध्यप्रदेश में महुआ शराब को लेकर अच्छे प्रयास हुए हैं। पिछले साल मध्यप्रदेश ने महुआ को हेरिटेज ड्रिंक घोषित कर आदिवासी सहकारिता समूहों को महुआ शराब बनाकर राज्य में बेचने की अनुमति दी। पर ये शराब अब भी देश के अन्य राज्यों में नहीं बेची जा सकती जहां कानून नहीं बदला है इसलिए पहले इस विषय पर एक राष्ट्रीय कानून की जरूरत है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि यदि महुआ शराब पर टैक्स कम हो तो यह भविष्य में शराब बाजार के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर सकती है। इस दिशा में कई तकनीकी पहलुओं पर भी ध्यान देना होगा। महुआ शराब की ‘शेल्फ लाइफ’ बढ़ानी होगी। क्वालिटी कंट्रोल, मार्केटिंग और प्रमोशन आदि के लिए भी विशेषज्ञों को काम पर लगाना होगा। सहकारिता मंत्रालय इसमें प्रारम्भिक मदद कर सकता है जैसा उन्होंने अमूल के लिए किया था। गुजरात में अमूल का प्रयोग हुआ था पर वहां शराब पर पाबंदी है। शराबबंदी एक जटिल विषय है। छत्तीसगढ़ में सर्व आदिवासी समाज के एक प्रमुख ने महुआ शराब बनाने पर पाबंदी हटवाई पर उसी समाज के दूसरे प्रमुख और राष्ट्रीय जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष नन्द कुमार साय ने महुआ शराब का विरोध करने के लिए कई दशकों से नमक नहीं खाया है। वह बताते हैं, ‘जब मैं अपनी सामाजिक बैठकों में महुआ शराब का विरोध करता था तो एक दिन किसी ने कहा यदि आप नमक खाना छोड़ दोगे तो हम महुआ छोड़ देंगे। तो उसके बाद से मैंने नमक नहीं खाया।’ छत्तीसगढ़ के गैर-आदिवासी इलाकों में भी शराबबंदी के लिए खासकर महिलाओं के बड़े आंदोलन हुए हैं, हो रहे हैं। पर जहां तक आदिवासी समाज का प्रश्न है बहुत से घरों में आज महुआ शराब बनती है। पूजा-पाठ के अलावा मेहमानों को भी इसकी पेशकश की जाती है। आर्थिक लाभ वे ही ले पाते हैं जो गैर-कानूनी रूप से इसे बेचते हैं। महुआ की तरह हर आदिवासी इलाके में माइनिंग भी होता है। जैसे नो-माइनिंग एक अवास्तविक मांग है, वैसे ही शराबबंदी भी। कॉर्पोरेट माइनिंग से आदिवासियों को नुकसान अधिक और फायदा कम हुआ। क्या सहकारिता वाली महुआ नीति से हर आदिवासी महिला का सशक्तीकरण नहीं होगा? छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों में सरकारों को माइनिंग के बाद आबकारी टैक्स से ही सर्वाधिक आय होती है। पर यदि किसी बड़ी कंपनी को बस्तर में महुआ शराब की बड़ी डिस्टलरी लगाकर बेचने की नीति बनेगी तो आदिवासियों को माइनिंग की ही तरह अधिक फायदा नहीं होगा। अंग्रेजों ने आते ही आदिवासियों से जंगल छीन लिए थे, जिसके बाद देशभर में विद्रोह भी हुए थे।
हाल में केन्द्रीय गृहमंत्री ने वामपंथी उग्रवाद पर हुई एक बैठक में रायपुर में कहा कि अगले कुछ माह में तेंदूपत्ता नीति में परिवर्तन किया जाएगा। छत्तीसगढ़ में तेंदूपत्ता 850 करोड़ का व्यापार है, जबकि महुआ शराब इससे कई गुना बड़ा व्यापार हो सकता है। महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह किया, पर उनके बाद किसी ने भी महुए पर ध्यान नहीं दिया। 2005 का वनाधिकार कानून ‘ऐतिहासिक गलती’ को ठीक करता हुआ आदिवासियों को जंगल वापस देने का प्रयास करता है वैसे ही नया महुआ कानून ‘आदिवासियों की उपेक्षा’ को ठीक करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है। महुए का सम्मान आदिवासी का सम्मान होगा। सहकारिता वाला महुआ उद्योग माओवादी हिंसा से लड़ाई में भी मदद करेगा।

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