लंबे समय से देश की राजनीति आरक्षण के पक्ष और विरोध के बीच बंटी हुई है। आरक्षण के विरोधी भी हैं तो वंचित वर्ग के उत्थान के लिए आरक्षण को जरूरी हथियार समझने वाले भी खूब हैं। जात-पात के आधार पर राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कांग्रेस भी आरक्षण के पक्ष में रही है। केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ही विरोधी दल आशंका जताते रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा जातीय आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने की है। यह भी है कि आधिकारिक रूप से केंद्र सरकार ने कभी यह नहीं कहा कि वह जाति के आधार पर आरक्षण समाप्त करना चाहती है, पर भाजपा समर्थकों का एक वर्ग अपेक्षा करता रहा है कि योग्यता पर जात-पात को तरजीह नहींं दी जाए। एक बार बिहार चुनाव के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जातीय आरक्षण को लेकर बयान दिया था, जिसके बाद पार्टी को सफाई देनी पड़ी थी। चुनाव में हार के लिए इस बयान को भी एक कारण मान लिया गया था।
यह बहस लंबे समय से जारी है और इसका कोई अंत होता नहीं दिख रहा है। आरक्षण के जिन्न को बोतल में बंद करने का जोखिम उठाने का साहस कोई राजनीतिक दल नहीं कर पा रहा है। इसकी एक बड़ी वजह सामाजिक असमानता बने रहना भी है। बहरहाल, मेडिकल शिक्षा में आरक्षण की इस नई घोषणा के बाद आगामी चुनाव में समीकरणों को लेकर जोड़-घटाव शुरू हो गए हैं। इस फैसले को मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि के रूप में बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि लंबे समय से की जा रही मांग पूरी हो गई है। चुनावी राज्यों में ओबीसी की संख्या ठीक-ठाक है। प्रतीकात्मक ही सही पर भाजपा को इसका फायदा हो सकता है। लेकिन, सामाजिक न्याय का लक्ष्य पाने के साथ, देश को उस दिन का इंतजार रहेगा जब शिक्षा हो या नौकरी, एक ही लकीर पर खड़े होकर अभ्यर्थियों की दौड़ शुरू होगी। तब किसी को यह कहने का मौका नहीं मिलेगा कि उनका हक जात-पात की वजह से मारा गया। सामाजिक न्याय के इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए लगता है अभी मीलों चलना बाकी है।