रचनाधर्मिता के दौर में मैथिलीशरण गुप्त की ख्याति का आधार ग्रंथ ‘भारत भारती‘ (1912) रहा। इस ग्रंथ के माध्यम से उन्होंने देश-दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था – ‘हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी। आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी।।’
स्वेदशानुराग में निमग्न रहने वाले गुप्तजी सदैव भारतीय संस्कृति के गौरव के गुणगान के साथ-साथ स्त्री, कृषक और वंचित के हक में खड़े रहे। ‘साकेत’ के माध्यम से उन्होंने उर्मिला के त्याग व समर्पण को रेखांकित किया। ‘साकेत’ की इन पंक्तियों से हम उर्मिला की दशा समझ सकते हैंं – ‘मानस मंदिर में सति, पति की प्रतिमा थाप। जलती थी उस विरह में बनी आरती आप।’
गुप्तजी ने अपने ‘यशोधरा’ नामक ग्रंथ के माध्यम से नारी के हक में आवाज उठाई। साथ ही उन्होंने समकालीन परिस्थितियों में नारी के दर्द को इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी – ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।’ यशोधरा कमजोर नहीं है। वह कहती है – ‘सखी, वे मुझसे कहकर जाते, तो क्या वे मुझको अपनी पगबाधा ही पाते।’
साहित्य जगत में उपेक्षित इसी तरह के एक और पात्र विष्णुप्रिया पर भी गुप्तजी ने ‘विष्णुप्रिया’ नामक ग्रंथ की रचना की। ‘जयभारत’ के माध्यम से गुप्तजी ने महाभारत की कथा को विशिष्टता से अभिव्यक्ति दी है। गुप्तजी का काव्य जनजागरण का काव्य है, जिसमें भारत की समृद्ध संस्कृति पूरी तन्मयता के साथ वर्णित है। वे कहते हैं – ‘संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है, उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।’
गुप्तजी इसी धरा को स्वर्ग बनाने के अभिलाषी हैं। ‘साकेत’ में राम के माध्यम से इस बात का उद्घोष करते हैं – ‘संदेश नहीं मैं यहां स्वर्ग का लाया। इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।’ वे कामना करते हैं – ‘मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती। भगवान भारतवर्ष में गूंजें हमारी भारती।’ इस तरह आज दशकों बाद भी गुप्तजी के गान संपूर्ण भारतवर्ष में गुंजायमान हैं।