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कानूनी कवच और शिक्षा की गारंटी हो सकते हैं समाधान

बाल दिवस: राष्ट्रीय है कचरा बीनते बच्चों की समस्या

जयपुरNov 14, 2024 / 11:00 pm

Nitin Kumar

अजहर हाशमी
कवि और साहित्यकार
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क्या ये भारत माता के वे बच्चे हैं जिनके हाथों में थैले हैं और कपड़े मटमैले हैं। ये राष्ट्रपिता के वे बच्चे हैं जिनके भविष्य की उज्ज्वलता की बात उन्होंने ‘मेरे सपनों का भारत’ में की थी। आज उनके चेहरों पर उदासी और होंठों पर खामोशी है। ये काल के कपाल पर कविता लिखने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के वे बच्चे हैं जिनकी आंखों में सूनापन और आंतों में भूख की ऐंठन है। प्रश्न उठता है कि कौन हैं ये बच्चे? उत्तर है कि ये हैं कचरा बीनते बच्चे। ये वे बच्चे हैं जो सुबह-ही-सुबह ‘स्कूल की सूरत’ नहीं, ‘कचरे की मूरत’ देखते हैं। ये वे बच्चे हैं जिन्हें ‘क’ से ‘कक्षा’ नहीं, ‘क’ से ‘कचरा’ याद है। ये बच्चे कचरे का मुंह खोलकर उसके ‘दांत’ गिनते हैं ताकि भूखी ‘आंत’ के लिए भोजन का प्रबंध हो सके।
इस संदर्भ में ऐसे बच्चों की बेबसी को रेखांकित करती हुई ये काव्य-पंक्तियां उल्लेखनीय हैं: ‘भूख, बेकारी, गरीबी के नजारे बच्चे/रोज ये बीनते हैं कचरा बेचारे बच्चे/ पाठशाला से है रिश्ता किसी नदिया जैसा/ इक किनारे पे है वो, दूजे किनारे बच्चे।’ जयपुर से गढ़वाल तक, गली से चौपाल तक, रतलाम से भोपाल तक, तिरुवनंतपुरम से तिरुवल्ली तक, देहात से दिल्ली तक कचरा बीनते बच्चे दिख जाएंगे। तात्पर्य यह है कि ‘कचरा बीनते बच्चे’ एक ऐसी समस्या है जो स्थानीय भी है, प्रांतीय भी और राष्ट्रीय भी। प्रश्न उठता है कि क्या है इस समस्या का कारण? क्या हो रहे हैं इसके परिणाम? कैसे हो सकता है इस समस्या का समाधान? पहले प्रश्न का उत्तर तो यह है कि इस समस्या का कारण दरअसल दरिद्रता है। दरिद्रता के दालान में ही भूख पांव पसारती है। भूखे पेट को भोजन चाहिए, भजन नहीं। कहावत भी है कि ‘भूखे भजन न होय गोपाला।’ जो लोग आर्थिक दृष्टि से दरिद्रता की घोर अवस्था में होते हैं अर्थात जिनके पास न तो नौकरी होती है न जीवनयापन का अन्य साधन, ऐसे लोग/माता-पिता अपने बच्चों को कचरा बीनने के लिए भेज देते हैं ताकि वे स्वयं की और परिवार के अन्य सदस्यों की भोजन की भूख को शांत करने के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर सकें।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि माता-पिता शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ/असमर्थ होते हैं तो वे अपने बच्चों को कचरा बीनने के लिए कहते हैं ताकि कचरा बीनते हुए बच्चों को कुछ ऐसी वस्तुएं मिल जाएं जिन्हें बेचकर वे रुपए प्राप्त कर सकें और भोजन की व्यवस्था कर सकें। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनके सिर से मां-बाप का साया उठ चुका होता है और वे हर दृष्टि से अनाथ होते हैं। ऐसे अनाथ बच्चे अपना पेट पालने के लिए कचरा बीनने में लग जाते हैं।
बाल श्रमिकों के शोषण को रोकने के लिए चूंकि देश में कानून पारित हो चुका है, इसलिए बच्चों से श्रमिक का कार्य नहीं लिया जा सकता। अत: बच्चों को नौकर रखकर वेतन या मजदूरी नहीं दी जा सकती (हालांकि बहुत से होटलों में अब भी बाल श्रमिक कार्य करते हुए दिख जाते हैं और इसके पीछे होटल मालिकों और संबंधित अधिकारियों की सांठ-गांठ भी संभव है)। गरीब व मजबूर बच्चों के कचरा बीनने के पीछे यह भी एक वजह है। चूंकि वे स्वयं यह कार्य करते हैं इसलिए उन पर बाल श्रम शोषण का कानून लागू नहीं होता। चाहे जो हो समस्या का मूल कारण आर्थिक दरिद्रता ही है। एक ओर दरिद्रता के कारण कचरा बीनने की विवशता है तो दूसरी ओर इतनी अधिक संपन्नता कि रहने के लिए गगनचुंबी इमारतें हैं और भोजन में छत्तीस व्यंजन होने पर भी भूख शांत नहीं होती।
इस समस्या के गंभीर परिणामों में से एक तो यह है कि कचरा बीनने वाले बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते। पढ़ाई-लिखाई ऐसे बच्चों के लिए आकाश-कुसुम हो जाती है। दूसरा गंभीर परिणाम यह कि ऐसे बच्चे चाइल्ड-माफिया (जो बच्चों को धौंस-धमकी या लालच देकर गलत कार्य कराते हैं) की चपेट में आकर अपराधी हो जाते हैं। तीसरा परिणाम यह कि ऐसे बच्चे नशे और व्यसन के आदी हो जाते हैं। पिछले दिनों यह समाचार कई दिनों तक अखबारों की सुर्खी बना रहा था कि कचरा बीनते हुए बच्चे ‘वाइटनर’ (स्याही मिटाने का द्रव) पीकर उसके नशे में होश भूले रहते थे। चौथा परिणाम यह कि ऐसे बच्चे कई संक्रामक और असाध्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। अब बारी आती है समाधान की। जिस तरह बाल श्रम के शोषण को रोकने के लिए राष्ट्रीय कानून (२००५) लागू किया गया है उसी प्रकार बाल पोषण कानून भी बनाया जाए जो महिला एवं बाल विकास से संयुक्त न होकर स्वतंत्र राष्ट्रीय बाल पोषण कानून हो। शिक्षा-गारंटी योजना के साथ इस बाल पोषण कानून को बेशक जोड़ा जा सकता है।

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